Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

निरावरण तत्त्व की महिमा

- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

तत्त्वदृष्टि से जीव और ईश्वर एक हैं, फिर भी भिन्नता दिखती है । क्यों ? क्योंकि जब शुद्ध चैतन्य में स्फुरण हुआ तब अपने स्वरूप को भूलकर जो स्फुरण के साथ एक हो गया, वह जीव हो गया परंतु स्फुरण होते हुए भी जो अपने स्वरूप को नहीं भूले, अपने को स्फुरण से अलग जानकर अपने स्वभाव में डटे रहे, वे ईश्वर कोटि के हो गये । जैसे - ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं, श्रीराम हैं, जगदम्बा हैं... ।

उन्हें निरावरण भी कहते हैं । जो स्फुरण के साथ बह गये, अपने को भूलकर लड़खड़ाने लगे वे जीव हो गये, उन्हें सावरण (आवरणसहित) कहते हैं । जो निरावरण हैं वे माया को वश में करके जीते हैं । माया को वश करके जीनेवाले चैतन्य को ईश्वरकहते हैं । अविद्या के वश होकर जीनेवाले चैतन्य को जीवकहते हैं, कारण कि उसे जीने की इच्छा हुई और देह को मैंमानने लगा ।

ईश्वर का चिन्मय वपु वास्तविक मैंहोता है । जहाँ से स्फुरण उठता है वह वास्तविक मैंहै । जितने भी उच्च कोटि के महापुरुष हो गये, वे भी जन्म लेते हैं तब तो सावरण होते हैं लेकिन स्फुरण का ज्ञान पा के अपने चिन्मय वपु में मैंपना दृढ़ कर लेते हैं तो निरावरण हो जाते हैं, ब्रह्मस्वरूप हो जाते हैं । ऐसे ब्रह्मस्वरूप महापुरुष हमें युक्ति-प्रयुक्ति से, विधि-विधान से निरावरण होने का उपाय बताते हैं, ज्ञान देते हैं । सद्गुरु के रूप में हम उनकी पूजा करते हैं । यदि ईश्वर और सद्गुरु दोनों आकर खड़े हो जायें तो... संत कबीरजी कहते हैं :

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय ।

बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय ।।

हम पहले सद्गुरु को पूजेंगे क्योंकि सद्गुरु ने ही हमें अपने निरावरण तत्त्व का ज्ञान दिया है ।

ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने ।

ईश्वर और गुरु की आकृतियाँ दो दिखती हैं, वास्तव में दोनों अलग नहीं हैं ।

जो महापुरुष निरावरण पद को प्राप्त हो जाते हैं वे ईश्वर कोटि के हो जाते हैं । वे मौज में आकर कह दें कि ऐसा हो जायेगातो वह हो जाता है । यह निरावरण तत्त्व में स्थिति का सामर्थ्य है । जैसे बिजलीघर (power house) द्वारा बिजली की आपूर्ति (supply) तो वही-की-वही है लेकिन उसका उपयोग जहाँ होता है वह साधन जिस किस्म का होगा, परिणाम भी उसी किस्म का होगा, जैसे - गीजर, फ्रिज, मोटर आदि में एक ही विद्युत-शक्ति कार्य करती है लेकिन परिणाम साधन-अनुरूप होते हैं । ईश्वर का संकल्प जहाँ से स्फुरित होता है वही चैतन्य आपका भी है । आपका संकल्प भी वहीं से स्फुरित होता है । ईश्वर के साधन बढ़िया हैं और आपके अंतःकरण और इन्द्रियाँ रूपी साधन घटिया हैं । है तो वही चैतन्य फिर भी उसका सामर्थ्य आपके साधनों द्वारा सीमित प्रभाव दिखाता है । जब आपकी निरावरण स्वरूप में स्थिति हो जाती है, तब आप उसके सत्ता-सामर्थ्य को जान पाते हैं क्योंकि आप भी वही चैतन्यस्वरूप हो जाते हैं । अब भी आपका स्वरूप वही है मगर जानते नहीं हैं न ! नश्वर संसार के नाम और रूप में आसक्त होकर उसमें ही उलझ गये हैं । नाम और रूप का आधार तो एक ही है । तत्त्वज्ञान के अभाव में भेद दिखता है । वास्तव में भेद नहीं है । जीव और ईश्वर भी कहनेभर को दो हैंवास्तव में दो नहीं हैं वेदांत की दृष्टि से ।     

Ref: ISSUE321-SEPTEMBER-2019