- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
(मकर संक्रांति: 15 जनवरी)
आत्मोद्धारक व जीवन-पथ प्रकाशक पर्व
जिस दिन भगवान सूर्यनारायण उत्तर दिशा की तरफ प्रयाण करते हैं, उस दिन उत्तरायण (मकर संक्रांति) का पर्व मनाया जाता है । इस दिन से अंधकारमयी रात्रि कम होती जाती है और प्रकाशमय दिवस बढ़ता जाता है । उत्तरायण का वाच्यार्थ है कि सूर्य उत्तर की तरफ, लक्ष्यार्थ है आकाश के देवता की कृपा से हृदय में भी अनासक्ति करनी है । नीचे के केन्द्रों में वासनाएँ, आकर्षण होता है व ऊपर के केन्द्रों में निष्कामता, प्रीति और आनंद होता है । संक्रांति रास्ता बदलने की सम्यक् सुव्यवस्था है । इस दिन आप सोच व कर्म की दिशा बदलें । जैसी सोच होगी वैसा विचार होगा, जैसा विचार होगा वैसा कर्म होगा । हाड़-मांस के शरीर को सुविधाएँ दे के विकार भोगकर सुखी होने की पाश्चात्य सोच है और हाड़-मांस के शरीर को संयत, जितेन्द्रिय रखकर सद्भाव से विकट परिस्थितियों में भी सामनेवाले का मंगल चाहते हुए उसका मंगलमय स्वभाव प्रकट करना यह भारतीय सोच है ।
सम्यक् क्रांति... ऐसे तो हर महीने संक्रांति आती है लेकिन मकर संक्रांति साल में एक बार आती है । उसीका इंतजार किया था भीष्म पितामह ने । उन्होंने उत्तरायण काल शुरू होने के बाद ही देह त्यागी थी ।
पुण्यपुंज व आरोग्यता अर्जन का दिन
जो संक्रांति के दिन स्नान नहीं करता वह 7 जन्मों तक निर्धन और रोगी रहता है और जो संक्रांति का स्नान कर लेता है वह तेजस्वी और पुण्यात्मा हो जाता है । संक्रांति के दिन उबटन लगायें, जिसमें काले तिल का उपयोग हो ।
भगवान सूर्य को भी तिलमिश्रित जल से अर्घ्य दें । इस दिन तिल का दान पापनाश करता है, तिल का भोजन आरोग्य देता है, तिल का हवन पुण्य देता है । पानी में भी थोड़े तिल डाल के पियें तो स्वास्थ्यलाभ होता है । तिल का उबटन भी आरोग्यप्रद होता है । इस दिन सूर्योदय से पूर्व स्नान करने से 10 हजार गौदान करने का फल होता है । जो भी पुण्यकर्म उत्तरायण के दिन करते हैं वे अक्षय पुण्यदायी होते हैं । तिल और गुड़ के व्यंजन, चावल और चने की दाल की खिचड़ी आदि ऋतु-परिवर्तनजन्य रोगों से रक्षा करती है । तिलमिश्रित जल से स्नान आदि से भी ऋतु-परिवर्तन के प्रभाव से जो भी रोग-शोक होते हैं, उनसे आदमी भिड़ने में सफल होता है ।
सूर्यदेव की विशेष प्रसन्नता हेतु मंत्र
ब्रह्मज्ञान सबसे पहले भगवान सूर्य को मिला था । उनके बाद राजा मनु को, यमराज को... ऐसी परम्परा चली । भास्कर आत्मज्ञानी हैं, पक्के ब्रह्मवेत्ता हैं । बड़े निष्कलंक व निष्काम हैं । कर्तव्यनिष्ठ होने में और निष्कामता में भगवान सूर्य की बराबरी कौन कर सकता है ! कुछ भी लेना नहीं, न किसीसे राग है न द्वेष है । अपनी सत्ता-समानता में प्रकाश बरसाते रहते हैं, देते रहते हैं ।
‘पद्म पुराण’ में सूर्यदेवता का मूल मंत्र है : ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः । अगर इस सूर्य मंत्र का ‘आत्मप्रीति व आत्मानंद की प्राप्ति हो’ - इस हेतु से भगवान भास्कर का प्रीतिपूर्वक चिंतन करते हुए जप करते हैं तो खूब प्रभु-प्यार बढ़ेगा, आनंद बढ़ेगा ।
ओज-तेज-बल का स्रोत : सूर्यनमस्कार
सूर्यनमस्कार करने से ओज-तेज और बुद्धि की बढ़ोतरी होती है । ॐ सूर्याय नमः । ॐ भानवे नमः । ॐ खगाय नमः । ॐ रवये नमः । ॐ अर्काय नमः ।... आदि मंत्रों से सूर्यनमस्कार करने से आदमी ओजस्वी-तेजस्वी व बलवान बनता है । इसमें प्राणायाम भी हो जाता है, कसरत भी हो जाती है ।
सूर्य की उपासना करने से, अर्घ्य देने से, सूर्यस्नान व सूर्य-ध्यान आदि करने से कामनापूर्ति होती है । सूर्य का ध्यान भ्रूमध्य में करने से बुद्धि बढ़ती है और नाभि-केन्द्र में करने से मंदाग्नि दूर होती है, आरोग्य का विकास होता है ।
आरोग्य व पुष्टि वर्धक : सूर्यस्नान
सूर्य की धूप में जो खाद्य पदार्थ, जैसे - घी, तेल आदि 2-4 घंटे रखा रहे तो अधिक सुपाच्य हो जाता है । धूप में रखे हुए पानी से कभी-कभी स्नान कर सकते हैं । इससे सूखा रोग (Rickets) नहीं होता और रोगनाशिनी शक्ति बरकरार रहती है ।
सूर्य की किरणों से रोग दूर करने की प्रशंसा ‘अथर्ववेद’ में भी आती है । कांड - 1, सूक्त 22 के श्लोकों में सूर्य की किरणों का वर्णन आता है ।
मैं 15-20 मिनट सूर्यस्नान करता हूँ । लेटे-लेटे सूर्यस्नान करना और भी हितकारी होता है लेकिन सूर्य की कोमल धूप हो, सूर्योदय से एक-डेढ़ घंटे के अंदर-अंदर सूर्यस्नान कर लें । इससे मांसपेशियाँ तंदुरुस्त होती हैं, स्नायुओं का दौर्बल्य दूर होता है । सूर्यस्नान का यह प्रसाद मुझे अनुभव होता है । मुझे स्नायुओं में दौर्बल्य नहीं है । स्नायु की दुर्बलता, शरीर में दुर्बलता, थकान व कमजोरी हो तो प्रतिदिन सूर्यस्नान करना चाहिए ।
सूर्यस्नान से त्वचा के रोग भी दूर होते हैं, हड्डियाँ मजबूत होती हैं । रक्त में कैल्शियम, फॉस्फोरस व लोहे की मात्राएँ बढ़ती हैं, ग्रंथियों के स्रोतों में संतुलन होता है । सूर्यकिरणों से खून का दौरा तेज, नियमित व नियंत्रित चलता है । लाल रक्त कोशिकाएँ जाग्रत होती हैं, रक्त की वृद्धि होती है । गठिया, लकवा और आर्थराइटिस के रोग में भी लाभ होता है । रोगाणुओं का नाश होता है, मस्तिष्क के रोग, आलस्य, प्रमाद, अवसाद, ईर्ष्या-द्वेष आदि शांत होते हैं । मन स्थिर होने में भी सूर्य की किरणों का योगदान है । नियमित सूर्यस्नान से मन पर नियंत्रण, हार्मोन्स पर नियंत्रण और त्वचा व स्नायुओं में क्षमता, सहनशीलता की वृद्धि होती है ।
नियमित सूर्यस्नान से दाँतों के रोग दूर होने लगते हैं । विटामिन ‘डी’ की कमी से होनेवाले सूखा रोग, संक्रामक रोग आदि भी सूर्यकिरणों से भगाये जा सकते हैं ।
अतः आप भी खाद्य अन्नों को व स्नान के पानी को धूप में रखो तथा सूर्यस्नान का खूब लाभ लो ।
दृढ़ संकल्पवान व साधना में उन्नत होने का दिन
उत्तरायण यह देवताओं का ब्राह्ममुहूर्त है तथा लौकिक व अध्यात्म विद्याओं की सिद्धि का काल है । तो मकर संक्रांति के पूर्व की रात्रि में सोते समय भावना करना कि ‘पंचभौतिक शरीर पंचभूतों में, मन, बुद्धि व अहंकार प्रकृति में लीन करके मैं परमात्मा में शांत हो रहा हूँ । और जैसे उत्तरायण के पर्व के दिन भगवान सूर्य दक्षिण से मुख मोड़कर उत्तर की तरफ जायेंगे, ऐसे ही हम नीचे के केन्द्रों से मुख मोड़कर ध्यान-भजन और समता के सूर्य की तरफ बढ़ेंगे । ॐ शांति... ॐ आनंद...’
रात को ‘ॐ सूर्याय नमः ।’ इस मंत्र का चिंतन करके सोओगे तो सुबह उठते-उठते सूर्यनारायण का भ्रूमध्य में ध्यान भी सहज में कर पाओगे । उससे बुद्धि का विकास होगा ।
Ø Rishi Prasad – Issue-252 – December 2013