एक बार गुरु गोविंदसिंहजी के दर्शन करने के लिए पेशावर के सत्संगी आनंदपुर साहिब आये । एक-एक करके उन्होंने गुरु गोविंदसिंहजी के चरणों में शीश झुकाकर प्रणाम किया । जब एक छोटे-से बच्चे ने शीश झुकाया तो गुरु ने पूछा - ‘‘बेटा ! क्या नाम है तेरा ?’’
बच्चे ने कहा - ‘‘सच्चे बादशाह ! मेरा नाम जोगा है ।’’
गुरु गोविंदसिंहजी बोले - ‘‘किधे जोगा है भई तू (भाई ! तू किसके लिए है) ?’’
छोटे-छोटे हाथ जोड़कर उसने कहा - ‘‘मैं तेरे जोगा, गरीबनिवाज ! मैं तेरे जोगा (मैं तेरे लिए)।’’
गुरु गोविंदसिंहजी बालक की बात सुनकर बड़े प्रसन्न हुए, बोले - ‘‘जोग्या ! जे1 तू गुरु गोविंदसिंह दे2 जोगा3 ता4 फिर गुरु गोविंदसिंह तेरे जोगा । अब तू जा नहीं, हमारे पास यहीं रह आनंदपुर साहिब ।’’
जोगा वहीं रहकर गुरुचरणों की सेवा करने लगा । जब वह बड़ा हो गया तब एक दिन उसके पिताजी आये और बोले - ‘‘गुरुसाहिब ! जोगा विवाह योग्य हो गया है । कृपा करके इसे घर भेज दीजिये । विवाह कर आये, फिर आपके चरणों में रहे ।’’
यह सुनकर जोगासिंह के मन में अहंकार आ गया कि ‘मेरे जैसी गुरुसेवा कौन कर सकता है ? मेरी अनुपस्थिति में यह सेवा कौन कर पायेगा ?’
घट घट के अंतर की जानत ।
भले बुरे की पीर1 पछानत ।।
गुरु को तो सब पता चलता है कि किसके मन में किस समय कैसा विचार आया है । गुरु गोविंदसिंहजी ने जोगासिंह को कहा - ‘‘तेरे पिताजी आये हैं, तेरा विवाह तय हो गया है । तू घर जा, शादी हो जाय फिर हमारे पास आ जाना परंतु एक बात का ख्याल रखना- जिस समय हमारा हुक्मनामा आये, हम तुम्हें याद करें, हमारी चिट्ठी लेकर कोई सिक्ख तेरे पास पहुँचे तब आने में एक पल की भी देर न करना ।’’
‘‘जी गुरुदेव ! सदा आपका हुक्म ही मानता आया हूँ । अब तो यह जीवन है ही आपके लिए ।’’
जोगासिंह निकल पड़ा । गुरु गोविंदसिंहजी ने एक सिक्ख को अपनी चिट्ठी के साथ जोगा के पीछे-पीछे यह कहकर भेज दिया कि ‘विवाह में जिस समय भाई जोगा के दो फेरे हो जायें, तब यह चिट्ठी जोगा को देना और कहना - तुझे गुरुदेव ने इसी समय याद किया है ।’ कड़ी परीक्षा थी ।
सिक्ख ने गुरु के आदेश का पालन किया । पत्र में लिखा था - ‘हमारा हुक्मनामा मिले तो पढ़कर उसी समय चल पड़ना, आने में एक पल की भी देर मत करना ।’ बाकी के फेरे छोड़ जोगा चल पड़ा ।
माता-पिता ने बड़ी मिन्नते कीं - ‘जोगा ! दो फेरे रह गये हैं, पूरे करके जा ।’ जोगासिंह ने कहा : ‘‘नहीं, अब एक पल भी ठहरना गुरु के हुक्म की तौहीन करना है । मुझे आज्ञा दो ।’’ वह तो चल पड़ा । जोगासिंह के तौलिये के साथ ही माता-पिता ने बाकी फेरे करवा के रस्म पूरी की । इधर जोगासिंह रास्ते में सोचने लगा, ‘गुरुसाहिब के पास मेरे जैसा कौन सिक्ख होगा जो इतना आज्ञापालक हो कि विवाह भी बीच में छोड़ दे ।’
जोगासिंह जब होशियारपुर के बाजार में से गुजरा तब उसकी नजर एक वेश्या पर पड़ी और मन में पाप ने जोर मारा कि ‘शाम हो गयी है । रात यहीं बिताकर सुबह चला जाऊँगा ।’ रात को जोगासिंहसीढ़ियॉं चढ़कर ऊपर वेश्या के द्वार पर पहुँचा । दरवाजे पर एक पहरेदार लम्बा-सा लट्ठ लेकर खड़ा था । जोगासिंह अंदर जाने लगा तो पहरेदार ने कहा - ‘‘ठहर जा प्यारे ! तू तो गुरु का शिष्य लगता है । गुरु का शिष्य और इस पापवाली जगह पर ! तुझे शोभा नहीं देता । यह तो पापगढ़ है । जा, वापस चला जा सिक्खा !’’
जोगासिंह वापस आ गया । थोड़ा समय बीता, फिर सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर गया । पहरेदार अब भी खड़ा था । उसने जोगासिंह को ललकारा - ‘‘ओ सिक्ख ! वापस चला जा । है तू गुरु का सिक्ख, फिर वेश्या के चौबारे पर क्या करने आया है ?’’
जोगासिंह बोला - ‘‘तू मुझे सिक्ख कहता है, तू आप भी तो सिक्ख है । तू यहाँ क्यों खड़ा है ?’’ तब पहरेदार के नयन भर आये, कहने लगा - ‘‘सिक्खा ! मैं अपनी मर्जी से नहीं खड़ा हुआ, मैं किसीके द्वारा खड़ा किया गया हूँ ।’’
जोगासिंह समझा, शायद इसका मालिक अंदर गया है और इसको बाहर खड़ा कर गया है । उस पहरेदार ने सारी रात जोगा को अंदर नहीं जाने दिया । ब्राह्ममुहूर्त हुआ तब पहरेदार ने कहा - ‘‘सिक्खा ! अमृतवेला हो गयी है । स्नान करके अपने गुरु के चरणों में जा । इस पापगढ़ में क्या लेने आया है ?’’
जोगासिंह चल पड़ा । सोचने लगा, ‘सचमुच, मैं आज पाप के ऐसे कुएँ में गिरनेवाला था, जहाँ पापों की आग मेरे पुण्यों को जलाकर राख कर देती ।’
जोगासिंह ने आनंदपुर साहिब पहुँचकर गुरुजी के चरणों में प्रणाम किया और कहा - ‘‘गरीबनिवाज ! आपका हुक्म आया और मैं आ पहुँचा । मैंने एक पल की भी देर नहीं की ।’’
गुरु बोले - ‘‘जोगा ! सारी रात तूने हमें सोने नहीं दिया । तेरे कारण हम वेश्या के द्वार पर पहरा देते रहे कि मेरा सिक्ख कहीं नरकों में न जा पड़े ।’’
जोगासिंह चीख पड़ा - ‘‘गुरुसाहिब ! उस पहरेदार के रूप में आप थे ?’’
‘‘हाँ जोगा ! याद कर, जब तू छोटा-सा था और मैंने तुझसे नाम पूछा था तब तूने कहा था - ‘मैं तेरे जोगा ।’ तब मैंने भी वचन दिया था कि ‘जोगा ! जे तू गुरु गोविंदसिंह दे जोगाता फिर गुरु गोविंदसिंह तेरे जोगा ।’’
भाई जोगा गुरु गोविंदसिंहजी के चरणों से लिपट गया - ‘‘गरीब निवाज ! अगर आप रक्षा नहीं करते तो सचमुच मैं तो नरक में गिरनेवाला था ।’’
‘‘जोगा ! तेरे मन में जो अहंकार आ गया था, वही मुझे दूर करना था । जब तक अहंकार है, तब तक प्रभु के साथ, गुरु के साथ मेल नहीं होता ।’’
जोगासिंह गुरुचरणों से लिपटकर रो-रो के माफी माँगने लगा -
दीनदयाल को बेनती सुनहुँ गरीब निवाज !
जो हम पूत कपूत हाँ तो हैं पिता तेरी लाज ।।
जब शिष्य पश्चात्ताप के आँसुओं से अपनी भूल के लिए प्रायश्चित्त करता है, गुरु को द्रवित हृदय से पुकारता है तो वे दीनदयाल उसकी पुकार सुनने में तनिक भी देर नहीं करते । हे शिष्य ! तुझे अपनी भूल का पता चलने में देर हो सकती है, माफी माँगने में तेरी ओर से देर हो सकती है परंतु माफ करने में सद्गुरुदेव को कोई देर नहीं लगती । अपना अहंकार गुरुचरणों में अर्पित करने में तू देर कर सकता है लेकिन कृपा बरसाने में उनकी ओर से कभी देर नहीं होती ।
गुरु गोविंदसिंहजी ने जोगासिंह को हृदय से लगा लिया और उसके सिर पर हाथ रखकर बोले - ‘‘जोगा ! यदि तू गुरु के लिए है तो गुरु तेरे लिए हैं । जो शिष्य पूर्णरूप से गुरु का हो जाता है, सम्पूर्ण प्रकृति, ईश्वरीय शक्तियाँ उसके अधीन हो जाती हैं ।’’
फरीदाजे तू मेरा होइरहहिसभुजगु तेरा होइ ।।
अखा भगत, मतंग गुरु, रैदासजी, शबरी, सूरदासजी, मीराबाई - इनका जीवन गुरु का प्रसाद पाकर कितना निखरा ! वे लोग मूर्ख हैं जो रुपये-पैसे के आधार पर अपना भविष्य बनाने का सोचते हैं । असली भविष्य-निर्माण तो ईश्वर व ईश्वरप्राप्त आत्मारामी सद्गुरुओं के कृपा-प्रसाद से ही होता है । सत्ता व रुपये-पैसे से भविष्य उज्ज्वल करनेवाले मर-मिटे । गुरु से गद्दारी करनेवालागोशालक कौन-से नरक में सड़ता होगा पता नहीं । एकलव्य, मीरा, शबरी जैसी गुरुभक्त आत्माएँ; एकनाथजी, प्रीतमदासजी जैसी पवित्र आत्माओं ने गुरुकृपा से अपना भविष्य कितना उज्ज्वल बना लिया और समाज का भी भविष्य उज्ज्वल बनाया । जो ईश्वरभक्तों, गुरुभक्तों को मिलता है उसे मनमुख, वासना और पद के गुलाम क्या जानें ?