Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

संसार से तरने का शास्त्रीय उपाय

भगवान विष्णु ब्रह्माजी की तपस्या से प्रसन्न होकर उनको ‘त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषद्’ का गुरु-शिष्य संवाद सुनाते हैं : 

श्रीगुरुभगवान को नमस्कार करके शिष्य पूछता है : ‘‘भगवन् ! सम्पूर्णतः नष्ट हुई अविद्या का फिर उदय कैसे होता है ?’’ गुरु बोले : ‘‘वर्षा ऋतु के प्रारम्भ में जैसे मेंढ़क आदि का फिर से प्रादुर्भाव होता है, उसी प्रकार पूर्णतः नष्ट हुई अविद्या का उन्मेषकाल में (भगवान के पलक खोलने पर) फिर उदय हो जाता है ।’’

शिष्य ने फिर पूछा : ‘‘भगवन् ! जीवों का अनादि संसाररूप भ्रम किस प्रकार है ? और उसकी निवृत्ति कैसे होती है ? मोक्ष का साधन या उपाय क्या है ? मोक्ष का स्वरूप कैसा है ? सायुज्य मुक्ति क्या है ? यह सब तत्त्वतः वर्णन करें ।’’

गुरु कहते हैं : ‘‘सावधान होकर सुनो ! निंदनीय अनंत जन्मों में बार-बार किये हुए अत्यंत पुष्ट अनेक प्रकार के विचित्र अनंत दुष्कर्मोंर्े के वासना-समूहों के कारण जीव को शरीर एवं आत्मा के पृथक्त्व का ज्ञान नहीं होता । इसीसे ‘देह ही आत्मा है’ ऐसा अत्यंत दृढ़ भ्रम हुआ रहता है । ‘मैं अज्ञानी हूँ, मैं अल्पज्ञ हूँ, मैं जीव हूँ, मैं अनंत दुःखों का निवास हूँ, मैं अनादि काल से जन्म-मरणरूप संसार में पड़ा हुआ हूँ’ - इस प्रकार के भ्रम की वासना के कारण संसार में ही प्रवृत्ति होती है । इस प्रवृत्ति की निवृत्ति का उपाय कदापि नहीं होता ।

मिथ्यास्वरूप, स्वप्न के समान विषयभोगों का अनुभव करके अनेक प्रकार के असंख्य अत्यंत दुर्लभ मनोरथों की निरंतर आशा करता हुआ अतृप्त जीव सदा दौड़ा करता है । अनेक प्रकार के विचित्र स्थूल-सूक्ष्म, उत्तम-अधम अनंत शरीरों को धारण करके उन-उन शरीरों में प्राप्त होने योग्य विविध विचित्र, अनेक शुभ-अशुभ प्रारब्धकर्मों का भोग करके उन-उन कर्मों के फल की वासना से लिप्त अंतःकरणवालों की बार-बार उन-उन कर्मों के फलरूप विषयों में ही प्रवृत्ति होती है । इससे संसार की निवृत्ति के मार्ग में प्रवृत्ति (रुचि) भी नहीं उत्पन्न होती । इसलिए (उनको) अनिष्ट ही इष्ट (मंगलकारी) की भाँति जान पड़ता है ।

संसार-वासनारूप विपरीत भ्रम से इष्ट (मंगलस्वरूप मोक्षमार्ग) अनिष्ट (अमंगलकारी) की भाँति जान पड़ता है । इसलिए सभी जीवों की इच्छित विषय में सुखबुद्धि है तथा उनके न मिलने में दुःखबुद्धि है । वास्तव में अबाधित ब्रह्मसुख के लिए तो प्रवृत्ति ही उत्पन्न नहीं होती क्योंकि उसके स्वरूप का ज्ञान जीवों को है ही नहीं । वह ब्रह्मसुख क्या है यह जीव नहीं जानते क्योंकि ‘बंधन कैसे होता है और मोक्ष कैसे होता है ?’ इस विचार का ही उनमें अभाव है । जीवों की ऐसी अवस्था क्यों है ? अज्ञान की प्रबलता से । अज्ञान की प्रबलता किस कारण है ? भक्ति, ज्ञान, वैराग्य की वासना (इच्छा) न होने से । इस प्रकार की वासना का अभाव क्यों है ? अंतःकरण की अत्यंत मलिनता के कारण ।’’

शिष्य : ‘‘अतः (ऐसी दशा में) संसार से पार होने का उपाय क्या है ?’’

गुरु बताते हैं : ‘‘अनेक जन्मों के किये हुए अत्यंत श्रेष्ठ पुण्यों के फलोदय से सम्पूर्ण वेद-शास्त्रों के सिद्धांतों का रहस्यरूप सत्पुरुषों का संग प्राप्त होता है । उस सत्संग से विधि तथा निषेध का ज्ञान होता है । तब सदाचार में प्रवृत्ति होती है । सदाचार से सम्पूर्ण पापों का नाश हो जाता है । पापनाश से अंतःकरण अत्यंत निर्मल हो जाता है । निर्मल होने पर अंतःकरण सद्गुरु की दयादृष्टि चाहता है । सद्गुरु के (कृपा-) कटाक्ष के लेश (थोड़े अंश) से ही 

         सब सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । सब बंधन पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं । श्रेय (मोक्षप्राप्ति) के सभी विघ्न विनष्ट हो जाते हैं । सभी श्रेय (श्रेष्ठ) कल्याणकारी गुण स्वतः आ जाते हैं । जैसे जन्मांध को रूप का ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार गुरु के उपदेश बिना करोड़ों कल्पों में भी तत्त्वज्ञान नहीं होता । इसलिए सद्गुरु-कृपा के लेश से अविलम्ब ही तत्त्वज्ञान हो जाता है ।’’

(ऋषि प्रसाद : जनवरी 2017 )