जो जहाँ है उसे वहाँ से ऊँचा उठाते इसलिए ‘सर्वसुहृद’ कहलाते
रणवीर सिंहजी चौधरी पूज्य बापूजी के और भी कुछ रोचक, प्रेरणाप्रद जीवन-प्रसंग बताते हैं :
गुरुदेव के संकल्प का अद्भुत सामर्थ्य !
सन् 2001 की बात है । खंडवा जिले में आदिवासियों के बच्चों के लिए ‘एकल विद्यालय’ नाम की संस्था चलती है । गाँव-गाँव में इस संस्था का विद्यालय चलता है, जिसमेें पढ़ानेवाले शिक्षक भी प्रायः आदिवासी ही होते हैं । एक बार हम कुछ साधक भाई सेवा के निमित्त पटाजन गाँव में गये थे । हमने विचार किया कि ‘अगर इन बच्चों को अपनी संस्कृति का ज्ञान, पूज्य बापूजी द्वारा बतायी गयीं युक्तियाँ आदि का लाभ दिलाया जाय तो इनका जीवन कितना उन्नत हो सकता है !’
हम उस संस्था के प्रमुख से मिले और उनको ‘बाल संस्कार केन्द्रों’ में सिखायी जानेवाली बातों की जानकारी दी । उनको बहुत अच्छा लगा । उन्होंने कहा कि ‘‘एकल विद्यालय के सभी शिक्षक एक प्रशिक्षण के निमित्त खंडवा आ रहे हैं । वहीं पर ‘बाल संस्कार केन्द्र’ के प्रशिक्षण हेतु एक दिन आपके लिए रख देंगे ।’’
प्रशिक्षण में लगभग 100 शिक्षक आये थे । पूज्य बापूजी बच्चों को उन्नत करने हेतु जो-जो बताते हैं - सुसंस्कार-सिंचन की आवश्यकता, बुद्धि व स्मरण शक्ति बढ़ाने की कुंजियाँ, स्वास्थ्य-रक्षा के उपाय, व्यसनों से होनेवाले नुकसान आदि सब बातें बतायीं तथा कुछ सत्साहित्य व बापूजी का श्रीचित्र दिया ।
कुछ दिन बीते... एक बार मैंने बैठक में उन सबके अनुभव पूछे तो शिक्षकों ने बताया कि ‘बापूजी की सब बातें बच्चों को बहुत अच्छी लग रही हैं और विद्यालयों में बच्चों की संख्या भी बढ़ने लगी है ।’
एक शिक्षक तो बोले कि ‘‘बापूजी की किताब पढ़कर हमको पता चला कि हम खुद अगर व्यसनों से छुटकारा नहीं पायेंगे तो बच्चों को अच्छे संस्कार देना सम्भव ही नहीं है । इसलिए मैं व्यसन न करने का संकल्प लेता हूँ ।’’
शिक्षकों व बच्चों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा । यह जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई । सन् 2002 में बापूजी देहरादून पधारे थे । मैंने एकल विद्यालय के बारे में गुरुदेव को जानकारी दी तो पूज्यश्री बोले : ‘‘वहाँ पर तुम क्या-क्या करते हो ?’’
‘‘जी, हम कुछ भाई मिलकर गाँव-गाँव में जाते हैं । ‘बाल संस्कार केन्द्र’ चलाने हेतु शिक्षकों को प्रेरित करते हैं और प्रशिक्षण देते हैं, आश्रम का सत्साहित्य देते हैं । परिणाम अच्छे आ रहे हैं । बस, इन्होंने दीक्षा नहीं ली है ।’’
‘‘ठीक है, इनको अभी सत्साहित्य ले जा के दो फिर आगे देखेंगे दीक्षा का कैसे होता है ।’’
पूज्यश्री ने मुझे एक कागज पर अपने कुछ सत्साहित्य के नाम लिखवाये । उसमें 200 ‘बाल संस्कार’, 200 ‘प्रसाद’, 100 ‘तू गुलाब होकर महक...’, 50 ‘योगासन’, 50 ‘नशे से सावधान’ पुस्तकें थीं । मेरी आदत है कि कोई कागज आदि जिस पर भी मुझे कुछ लिखना होता है तो मैं पहले उसके ऊपर ‘हरि ॐ’ लिखता हूँ । पर उस दिन मैं जल्दी-जल्दी में लिख नहीं पाया तो बापूजी ने वह कागज मेरे हाथ से लिया और स्वयं अपने करकमलों से उसके ऊपर ‘हरि ॐ’ लिखा और नीचे हस्ताक्षर किये ।
पूज्यश्री मुझे वह कागज देते हुए बोले : ‘‘यह सब सत्साहित्य यहीं के सत्साहित्य स्टॉल से ले के जाना ।’’
‘‘जी, खंडवा से ले लेंगे ।’’
‘‘नहीं-नहीं, यहीं से लेकर जाना और उनको देना है ।’’
गुरुदेव के निर्देशानुसार मैंने हरिद्वार के सत्साहित्य स्टॉल से सत्साहित्य लिया और उसके सेट बनाकर शिक्षकों में बाँट दिये ।
दीक्षा भी मिली, साथ ही उन्नत जीवन की राह भी खुली
एकल विद्यालय के शिक्षकों को ‘बाल संस्कार केन्द्र’ के प्रशिक्षण आदि की रिपोर्ट बापूजी को देने के लिए मैं सन् 2003 में वडोदरा में गया था । पहले दिन मैंने प्रयास किया लेकिन गुरुदेव से मिल नहीं पाया । दूसरे दिन मैं पंडाल में बैठा था । मैंने देखा कि एक 10-12 साल का बच्चा सबके बीच में घूम रहा है और धीरे-धीरे बोल रहा है, ‘किसीको बापूजी से तो नहीं मिलना है ?’
उस प्यारे बच्चे की निर्दोष मुस्कान देख के, मीठी वाणी सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा, मैंने कहा : ‘‘भाई ! मेरे को मिलना है ।’’
उसने मेरा हाथ पकड़ा और सीधा ले जा के बापूजी के सामने खड़ा कर दिया । मैंने बापूजी को रिपोर्ट बतायी । प्रशिक्षण के कुछ फोटो दिखाये । पूज्यश्री देखकर बड़े प्रसन्न हुए और एक कागज पर अपने करकमलों से कुछ सत्साहित्य के नाम लिखकर दिये । मुझे वह कागज दिया और बोले : ‘‘सारा सत्साहित्य यहीं से ले के जाना ।’’
‘‘जी, अपने यहाँ (खंडवा) से ले लूँगा ।’’
गुरुदेव बोले : ‘‘नहीं-नहीं, यहीं से ले के जाना ।’’
गुरुदेव की इस बात का रहस्य मैं समझ नहीं पाया लेकिन गुरुदेव के वचन शिरोधार्य करके मैंने वडोदरा के सत्साहित्य स्टॉल से सत्साहित्य लिया ।
हर महीने गाँव-गाँव में एकल विद्यालय के शिक्षकों की बैठक होती थी । हर बैठक में 15-20 शिक्षक रहते थे । मैं उन बैठकों में जाकर गुरुदेव के प्रसादरूप में मिला सत्साहित्य बाँटने लगा । कुछ दिन बाद मुझे खबर आयी कि एकल विद्यालय के 400 शिक्षकों को पूज्य बापूजी से दीक्षा लेनी है ।
यह सुनकर मेरी खुशी का ठिकाना न रहा । जो रहस्य पहले मेरी समझ में नहीं आया था वह अब आ गया कि गुरुदेव के वचनों के पीछे उनका मंगलमय संकल्प-सामर्थ्य भी छुपा होता है । दोनों बार पूज्यश्री की आज्ञा का अक्षरशः पालन करने का फल मेरे सामने प्रत्यक्ष था । आदिवासी क्षेत्र के 400 शिक्षकों को धर्मयुक्त, संयमी, सदाचारी जीवन जीने की प्रेरणा मिल गयी थी और इतना ही नहीं, उनके मन में जीवन के परम लक्ष्य - परमात्मप्राप्ति की उत्कंठा भी जगी थी ।
अप्रैल 2004 में पूज्य बापूजी उज्जैन कुम्भ में पधारे थे । वहाँ पर वे 400 शिक्षक पहुँच गये । पूज्यश्री को पता चला तो गुरुदेव ने उनके निवास, भोजन आदि की निःशुल्क व्यवस्था करने को कहा । व्यस्तताभरे शिविर में भी बापूजी ने उन सबको मिलने हेतु आगे बुलवाया । सबको सत्संग दिया, उनके जीवन को उन्नत करने की युक्तियाँ बतायीं, टोपियाँ दीं और दीक्षा के लिए बोले कि ‘‘देखते हैं ।’’
अक्टूबर 2004 में गुरुदेव खंडवा में सत्संग-समारोह के निमित्त पधारे थे । शिक्षकों की दीक्षा लेने की प्यास एवं श्रद्धा-भक्ति को देख बापूजी ने सबको निःशुल्क दीक्षा सेट दिलवाये और मंत्रदीक्षा प्रदान की । पूज्य बापूजी की कृपा से 400 आदिवासी शिक्षकों को ब्रह्मवेत्ता समर्थ सद्गुरु से मंत्रदीक्षा मिली । इससे न केवल उनके जीवन को सही दिशा मिली बल्कि उनसे जुड़े बच्चों को भी अच्छे संस्कार देने की मति-गति मिली । कई शिक्षक ‘ऋषि प्रसाद’ के सदस्य बने और कुछ तो ऋषि प्रसाद जन-जन तक पहुँचाने की सेवा में सहभागी बन गये ।
सद्गुरु का हृदय कैसा होता है, यह तो सद्गुरु ही जानते हैं ! उसका पूरा वर्णन शब्दों में करना सम्भव नहीं है । पूज्य बापूजी का ‘सबका मंगल, सबका भला ।’ यह स्वर्णिम सूत्र बड़ा ही विलक्षण है । इन सारी घटनाओं में मैं तो निमित्तमात्र था । यह तो गुरुदेव की करुणा-कृपा ही है कि छोटा-बड़ा, जाति-पंथ आदि न देखते हुए इतनी दूर-दूर के आदिवासी क्षेत्र के लोगों के भी हित का चिंतन करते हैं और उनका वर्तमान जीवन कष्टरहित, सुखमय कैसे हो इसका खयाल रखते हैं । सामान्य लोग भी उन्नत हो सकें इसलिए सत्संग, सेवा-प्रवृत्तियाँ, सत्साहित्य आदि के माध्यम से उनको उन्नत करते हैं । जो जहाँ है उसे वहाँ से ऊँचा उठाते हैं इसलिए वे ‘सर्वसुहृद’ कहलाते हैं ।