गौ-प्रेम से जुड़े पूज्य बापूजी के कुछ प्रेरणाप्रद हृदयस्पर्शी प्रसंग
(गोपाष्टमी (4 नवम्बर) पर विशेष)
पूज्य बापूजी ने न केवल गौ-महिमा जन-जन तक पहुँचायी है बल्कि गौ-सेवा के अनेक कार्य भी किये हैं । आज पूज्यश्री के मार्गदर्शन में देशभर में 45 से अधिक गौशालाएँ चल रही हैं, जिनमें 9000 गायें हैं ।
अपनी अति व्यस्त दिनचर्या में से भी समय निकालकर गायों के चारा-पानी, रखरखाव आदि का ध्यान रखना, कई बार गौशालाओं में जाकर स्वयं अपने हाथों से गायों की सेवा करना, गौ-पालकों को प्रोत्साहित करना आदि कार्य बापूजी के गौ-प्रेम को दर्शाते हैं । संतश्री का यह दैवी कार्य सभीके लिए अत्यंत प्रेरणाप्रद साबित हुआ है । पूज्य बापूजी के साधक एवं बापूजी को जानने-माननेवाले समस्त अनुयायी सदैव गौ-सेवा के लिए तत्पर रहते हैं ।
यहाँ ऐसे ही कुछ प्रसंग बता रहे हैं श्योपुर गौशाला के गजानंद भाई, जो सन् 2000 से गायों की सेवा में रत हैं तथा जिन्हें सन् 1986 से पूज्य बापूजी का सत्संग-सान्निध्य प्राप्त होता रहा है :
‘‘एक भी गाय कत्लखाने नहीं जानी चाहिए’’
सन् 2000 में राजस्थान में भीषण अकाल पड़ा था । उस समय निवाई (जि. टोंक, राज.) व आसपास के गाँवों के लोग पानी एवं घास के अभाव में गायों को छोड़ देते थे तो कत्लखानेवाले उन्हें ले जाते थे । निवाई के कुछ साधकों व अन्य लोगों ने जब गायों की ऐसी स्थिति देखी तो उनसे रहा न गया । वे यहाँ-वहाँ घूमनेवाली बेसहारा गायों को लेकर एक जगह रखते और उनके खाने-पीने की व्यवस्था करते । गायों की संख्या रोज बढ़ते-बढ़ते 1460 तक पहुँच गयी । इतनी सारी गायों की व्यवस्था करना व इतना खर्च करना उनके लिए सम्भव नहीं था । इलाज आदि के अभाव में कई गायें मर भी जाती थीं ।
पूज्य बापूजी तक जब यह बात पहुँचायी तो गुरुदेव ने तुरंत गायों की सेवा में लगने का आदेश दिया । उस समय मैं दोंडाईचा (महा.) आश्रम में था । गुरुदेव ने मुझे बुलवाया, बोले : ‘‘तुम लोग जाकर गायों की सेवा में लग जाओ । एक भी गाय कत्लखाने नहीं जानी चाहिए । पैसा जितना चाहिए भेज देंगे । अच्छे-से-अच्छा डॉक्टर लाओ । पशु-आहार लाओ और गायों को खिलाओ ।’’
गुरुदेव के निर्देशानुसार हम कुछ भाई निवाई पहुँचे और गायों को चारा-पानी व चिकित्सा उपलब्ध करायी । आगे चलकर निवाई में एक भव्य गौशाला का निर्माण हुआ, जिसका उद्घाटन 14 जून 2000 को पूज्य बापूजी के करकमलों से हुआ ।
बारिश के रूप में बरसी गुरुकृपा
निवाई में करीब 2100 गायें हो गयी थीं और एक ही बाड़ा था । इतनी गायों को एक साथ रखकर व्यवस्था करना मुश्किल होता था । पता चला कि निवाई से 210 कि.मी. दूर श्योपुर के पास के जंगल में गायों को रखने की व्यवस्था हो सकती है तो हम 8-10 आश्रमवासी भाई निवाई से 1400 गायें लेकर वहाँ के लिए निकल पड़े । हम हर रोज 20 से 25 कि.मी. चलते और शाम होने पर किसी गाँव में रुक जाते । कई जगह गाँव के लोगों को चिंता होती कि ‘ये यदि गायों को छोड़कर चले गये तो हमारा क्या हाल होगा !’ तो वे रुकने का विरोध करते, रात में हम पर नजर रखते । सुबह जब हम आगे बढ़ते थे तो उन गाँवों के लोग भी अपनी गायें हमारी गायों में मिला देते । इस प्रकार गायों की संख्या बढ़ते-बढ़ते 2400-2500 हो गयी ।
7वें दिन की घटना है । ‘वर्धा का खुरा’ नाम का एक गाँव आया, वहाँ पर हमने भोजन किया । हमको लगा कि आगे पानी मिल जायेगा । 10-12 कि.मी. चले होंगे । चारों तरफ जंगल-ही-जंगल था । कहीं पर भी पानी का कोई साधन नहीं दिख रहा था । मोबाइल की व्यवस्था थी नहीं । बकरी चरानेवाले लोग मिले, उनसे पूछा तो उन्होंने बताया कि ‘‘यहाँ से 8-10 कि.मी. दूर तालाब है ।’’
सूर्य आग बरसा रहा था । गला सूख रहा था और गायें भी प्यास से व्याकुल हो रही थीं । हालत बहुत गम्भीर थी । 1-1 कि.मी. रास्ता पार करना भी टेढ़ी खीर था । ऐसे में 8-10 कि.मी. चलना असम्भव था । हमको एक गुरुदेव का ही सहारा दिख रहा था । हमारे हृदय से प्रार्थना निकल रही थी कि ‘गुरुदेव ! अब नहीं चला जाता, अब आप ही बचा सकते हैं ।’
थोड़ी ही देर में जो चमत्कार हुआ, उसकी हमने कल्पना भी नहीं की थी । वहाँ बारिश होने लगी और इतनी हुई कि गड्ढे आदि पानी से भर गये । हम लोगों ने पानी पिया और गायें भी तृृप्त हो गयीं ।
हम सभी भाई गुरुदेव का गुणगान करते हुए आगे बढ़े और वहाँ ऐसा कुछ देखने को मिला कि उसे देखकर आश्चर्य को भी आश्चर्य हो जाय । मात्र आधा-पौना कि.मी. के बाद एकदम सूखी जमीन थी । अर्थात् जहाँ-जहाँ गायें थीं वहीं पर बारिश हुई थी, उसके अलावा के क्षेत्र में एक बूँद भी पानी नहीं गिरा था ! उस समय मैंने बापूजी की सर्वव्यापकता व सर्वसमर्थता का प्रत्यक्ष अनुभव किया ।
इतना ही नहीं, गुरुकृपा ऐसी बरसी कि हम गायों को ले के आगे जिस-जिस गाँव से गुजरते वहाँ-वहाँ बारिश होने लगती ।
आखिर 11वें दिन हम गंतव्य-स्थल पर पहुँच गये । वहाँ पर आसपास के गाँवों के 40-50 लोग आये और गायें रखने का विरोध करने लगे लेकिन उन्हींके गाँवों के कुछ लोगों ने जब कहा कि ‘जब से बापूजी की गायें यहाँ पर आयीं तभी से तो अपने यहाँ बारिश शुरू हुई है !’ तो उन्होंने भी इस सच्चाई को स्वीकार किया और गायों को रखने की स्वीकृति दे दी ।
इतनी सारी गायों को 210 कि.मी. दूर पहुँचाना हमारे लिए असम्भव था लेकिन गुरुदेव ने कैसे उसे सम्भव बना दिया, वह हमारी समझ से परे की बात है ! कुछ गायों को यहाँ से आश्रम की अन्य गौशालाओं में भेजा गया । आज श्योपुर में 1800 गायों की सेवा का भगीरथ कार्य पूज्यश्री की कृपा से अविरत चल रहा है ।
गायों के प्रति इतना प्रेम !
2004 के आसपास की घटना है । बापूजी सत्संग करने श्योपुर पधारे थे । अपनी गायें श्योपुर आश्रम से 50 कि.मी. दूर जंगल में रहती थीं । सत्संग पूरा हुआ, बापूजी बोले : ‘‘गजानंद ! गायों को देखना है । जंगल में चलते हैं, चल !’’
हम गाड़ी से जंगल के लिए निकले । बारिश के दिन थे । लगभग 40 कि.मी. चले होंगे । दलदल होने से गाड़ी के पहिये उसमें धँसने लगे ।
मैंने कहा : ‘‘गुरुदेव ! गाड़ी आगे जाना सम्भव नहीं है ।’’
बापूजी : ‘‘फिर कैसे पहुँचेंगे ? हमको तो गायों को देखना है ।’’
‘‘जी, पैदल जाना पड़ेगा ।’’
शाम के साढ़े सात-आठ बजे होंगे । अँधेरा हो गया था । बापूजी हमारे साथ 7-8 कि.मी. पैदल चलते हुए जंगल में वहाँ पहुँचे जहाँ गायें थीं ।
एक टेकरी के पास हमने तम्बू लगाया हुआ था । उसमें फटा-पुराना कम्बल बिछा हुआ था । सहजता की मूर्ति पूज्य बापूजी उसी पर विराजमान हो गये । पूज्यश्री ने पूछा : ‘‘गजानंद ! गायें कहाँ हैं ?’’
‘‘जी, यहाँ कीचड़ है इसलिए आसपास में अच्छी जगह ढूँढ़कर बैठ जाती हैं ।’’
‘‘कब आयेंगी ?’’
‘‘जी, सुबह आयेंगी ।’’
हमारे तम्बू में एक ग्रंथ रखा था । उसे देखकर बापूजी बोले : ‘‘यह ग्रंथ कौन-सा है ?’’
‘‘जी, योगवासिष्ठ महारामायण है ।’’
‘‘पढ़ो ।’’
मैं पढ़ने लगा और बापूजी उसी कम्बल पर लेटे-लेटे सुनने लगे । 2-5 मिनट पढ़ा, मैंने गुरुदेव की आँखें बंद देखीं तो मुझे लगा कि गुरुदेव सो गये होंगे । मैंने पढ़ना बंद कर दिया । इतने में गुरुदेव ने फिर से पूछा : ‘‘गायें कहाँ हैं ?’’
‘‘जी, जंगल में ।’’
‘‘पढ़ो ।’’
मैं फिर से पढ़ने लगा । 2-5 मिनट बाद फिर से बापूजी की आँखें बंद दिखाई दीं तो मैंने पुनः पढ़ना बंद कर दिया ।
फिर से पूज्यश्री बोले : ‘‘गायें कहाँ हैं ?’’
ऐसा लगभग 5 से 6 बार हुआ होगा । रात के करीब 11-12 बजे थे । गुरुदेव बोले : ‘‘गायों के पास जाना है ।’’
मैंने कहा : ‘‘जी, अभी जाना है ?’’
‘‘हाँ-हाँ !’’
वहाँ इतना कीचड़ था कि पैर रखो तो धँस जाय । मैं और 2-3 भाई मिलकर बापूजी को पैर रखने के लिए एक-एक पत्थर आगे डालते जा रहे थे । बड़ी मुश्किल से वहाँ पहुँचे जहाँ गायें बैठी थीं । हमारे सामने कुल गायों में से लगभग 1000-1100 गायें उपस्थित थीं । जंगल में रहनेवाली हमारी गायें रात के समय बहुत चौकन्ना रहती हैं । थोड़ी भी कुछ आहट होती है तो रक्षा हेतु तुरंत भागकर इधर-उधर हो जाती हैं लेकिन आश्चर्य कि उस दिन ऐसा नहीं हुआ !
आज भी मुझे उस रात का अनोखा दृश्य याद है । अँधेरी रात... बिजली चमक रही थी... मेघ गरज रहे थे... पहले तो गायें हमको देखकर चौंक गयीं लेकिन जैसे ही बापूजी की दिव्य दृष्टि गायों पर पड़ी तो वे झुंड बनाकर पूज्यश्री के पास आ गयीं । गुरुदेव ने गायों को सहलाया, उनकी पीठ पर हाथ घुमाया । गायें भी बापूजी के प्रति अपना प्रेम प्रकट करते हुए पूज्यश्री को चाटने लगीं । फिर गुरुदेव बोले : ‘‘अब चलो, मेरा संकल्प पूरा हो गया ।’’ फिर पूज्यश्री तम्बू में आये और बाकी रात बितायी । सुबह उठे तो गायें तम्बू के सामने ही थीं । बापूजी को देखकर फिर से
सभी गायें पास में आ गयीं । पूज्यश्री ने सब पर दृष्टि डाली । गायों ने भी गुरुदेव को निहारा ।
पूज्यश्री हम लोगों से बोले : ‘‘तुम्हारा तो यहाँ पर ऋषि-जीवन है ।’’
सुबह फिर से बापूजी कुछ कि.मी. पैदल चले फिर गाड़ी से श्योपुर आश्रम के लिए निकल गये । पूज्य बापूजी के गायों के प्रति इतने प्रेम को देखकर मेरा हृदय गद्गद हो गया !