Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

विघ्नविनाशक भगवान श्री गणपतिजी

जिस प्रकार अधिकांश वैदिक मंत्रों के आरम्भ में  लगाना आवश्यक माना गया है, वेदपाठ के आरम्भ में हरि ॐ का उच्चारण अनिवार्य माना जाता है, उसी प्रकार प्रत्येक शुभ अवसर पर श्री गणपतिजी का पूजन अनिवार्य है । उपनयन, विवाह आदि सम्पूर्ण मांगलिक कार्यों के आरम्भ में जो श्री गणपतिजी का पूजन  करता है, उसे अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है ।

            गणेश चतुर्थी के दिन गणेश उपासना का विशेष महत्त्व है । इस दिन गणेशजी की प्रसन्नता के लिए इस ‘गणेश गायत्रीमंत्र का जप करना चाहिए :

महाकर्णाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ।

            श्रीगणेशजी का अन्य मंत्र, जो समस्त कामनापूर्ति करनेवाला एवं सर्व सिद्धिप्रद है :

ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं गणेश्वराय ब्रह्मस्वरूपाय चारवे ।

सर्वसिद्धिप्रदेशाय विघ्नेशाय नमो नमः ।।

(ब्रह्मवैवर्त पुराणगणपति खंड : 13.34)

            गणेशजी बुद्धि के देवता हैं । विद्यार्थियों को प्रतिदिन अपना अध्ययन-कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व भगवान गणपति, माँ सरस्वती एवं सद्गुरुदेव का स्मरण करना चाहिए । इससे बुद्धि शुद्ध और निर्मल होती है ।



विघ्न निवारण हेतु



            गणेश चतुर्थी के दिन ॐ गं गणपतये नमः  का जप करने और गुड़मिश्रित जल से गणेशजी को स्नान कराने एवं दूर्वा व सिंदूर की आहुति देने से विघ्नों का निवारण होता है तथा मेधाशक्ति बढ़ती है ।



भूलकर भी न करें...



            गणेश चतुर्थी के दिन चाँद का दर्शन करने से कलंक लगता है । 


            भूल से चन्द्रमा दिख जाने पर श्रीमद् भागवत’ के 10वें स्कंध के 56-57वें अध्याय में दी गयी स्यमंतक मणि की चोरीकी कथा का आदरपूर्वक पठन-श्रवण करना चाहिए । भाद्रपद शुक्ल तृतीया या पंचमी के चन्द्रमा का दर्शन करना चाहिए, इससे चौथ को दर्शन हो गये हों तो उसका ज्यादा दुष्प्रभाव नहीं होगा ।



            निम्न मंत्र का 21, 54 या 108 बार जप करके पवित्र किया हुआ जल पीने से कलंक का प्रभाव कम होता है । मंत्र इस प्रकार है :



सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हतः ।

सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ।।



            ‘सुंदर, सलोने कुमार ! इस मणि के लिए सिंह ने प्रसेन को मारा है और जाम्बवान ने उस सिंह का संहार किया है, अतः तुम रोओ मत । अब इस स्यमंतक मणि पर तुम्हारा ही अधिकार है ।’

(ब्रह्मवैवर्त पुराणअध्याय : 78)