Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

सर्व सद्गुण सागर श्रीरामजी

श्रीरामचन्द्रजी परम ज्ञान में नित्य रमण करते थे । ऐसा ज्ञान जिनको उपलब्ध हो जाता है, वे आदर्श पुरुष हो जाते हैं । मित्र हो तो श्रीराम जैसा हो । उन्होंने सुग्रीव से मैत्री की और उसे किष्किंधा का राज्य दे दिया और लंका का राज्य विभीषण को दे दिया । कष्ट आप सहें और यश और भोग सामनेवाले को दें, यह सिद्धांत श्रीरामचन्द्रजी जानते हैं ।

शत्रु हो तो रामजी जैसा हो । रावण जब वीरगति को प्राप्त हुआ तो श्रीराम कहते हैं : ‘‘हे विभीषण ! जाओ, पंडित, बुद्धिमान व वीर रावण की अग्नि-संस्कार विधि सम्पन्न करो ।’’

विभीषण : ‘‘ऐसे पापी और दुराचारी का मैं अग्नि-संस्कार नहीं करता ।’’

‘‘रावण का अंतःकरण गया तो बस, मृत्यु हुई तो वैरभाव भूल जाना चाहिए । अभी जैसे बड़े भैया का, श्रेष्ठ राजा का राजोचित अग्नि-संस्कार किया जाता है ऐसे करो ।’’

बुद्धिमान महिलाएँ चाहती हैं कि ‘पति हो तो रामजी जैसा हो’ और प्रजा चाहती है, ‘राजा हो तो रामजी जैसा हो ।’ पिता चाहते हैं कि ‘मेरा पुत्र हो तो रामजी के गुणों से सम्पन्न हो’ और भाई चाहते हैं कि ‘मेरा भैया हो तो रामजी जैसा हो ।’ रामचन्द्रजी त्याग करने में आगे और भोग भोगने में पीछे । तुमने कभी सुना कि राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न में, भाई-भाई में झगड़ा हुआ ? नहीं सुना ।

श्रीरामजी का चित्त सर्वगुणसम्पन्न है । कोई भी परिस्थिति उनको द्वन्द्व या मोह में खींच नहीं सकती । वे द्वन्द्वातीत, गुणातीत, कालातीत स्वरूप में विचरण करते हैं ।

भगवान रामजी में धैर्य ऐसा जैसे पृथ्वी का धैर्य और उदारता ऐसी कि जैसे कुबेर भंडारी देने बैठे तो फिर लेनेवाले को कहीं माँगना न पड़े, ऐसे रामजी उदार ! पैसा मिलना बड़ी बात नहीं है लेकिन पैसे का सदुपयोग करने की उदारता मिलना किसी-किसीके भाग्य में होता है । जितना-जितना तुम देते हो, उतना-उतना बंधन कम होता है, उन-उन वस्तुओं से, झंझटों से तुम मुक्त होते हो । देनेवाला तो कलियुग में छूट जाता है लेकिन लेनेवाला बँध जाता है । लेनेवाला अगर सदुपयोग करता है तो ठीक है नहीं तो लेनेवाले के ऊपर मुसीबत पड़ती है ।

मेरे को जो लोग प्रसाद या कुछ और देते हैं तो उस समय मेरे को बोझा लगता है । जब मैं प्रसाद बाँटता हूँ या जो भी कुछ चीज आती है, उसे किसी सत्कर्म में दोनों हाथों से लुटाता हूँ तो मेरे हृदय में आनंद, औदार्य का सुख महसूस होता है ।

इस देश ने कृष्ण के उपदेश को अगर माना होता तो इस देश का नक्शा कुछ और होता । रामजी के आचरण की शरण ली होती तो इस देश में कई राम दिखते । श्रीरामचन्द्रजी का श्वासोच्छ्वास समाज के हित में खर्च होता था । उनका उपास्य देव आकाश-पाताल में दूसरा कोई नहीं था, उनका उपास्य देव जनता-जनार्दन थी । ‘जनता कैसे सुखी रहे, संयमी रहे, जनता को सच्चरित्रता, सत्शिक्षण और सद्ज्ञान कैसे मिले ?’ ऐसा उनका प्रयत्न होता था ।

श्रीरामचन्द्रजी बाल्यकाल में गुरु-आश्रम में रहते हैं तो गुरुभाइयों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं कि हर गुरुभाई महसूस करता है कि ‘रामजी हमारे हैं ।’ श्रीरामजी का ऐसा लचीला स्वभाव है कि दूसरे के अनुकूल हो जाने की कला रामजी जानते हैं । कोई रामचन्द्रजी के आगे बात करता है तो वे उसकी बात तब तक सुनते रहते, जब तक किसीकी निंदा नहीं होती अथवा बोलनेवाले के अहित की बात नहीं है और फिर उसकी बात बंद कराने के लिए रामजी सत्ता व बल का उपयोग नहीं करते हैं, विनम्रता और युक्ति का उपयोग करते हैं, उसकी बात को घुमा देते हैं । निंदा सुनने में रामचन्द्रजी का एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाता, वे अपने समय का दुरुपयोग नहीं करते थे ।

रामजी जब बोलते हैं तो सारगर्भित, सांत्वनाप्रद, मधुर, सत्य, प्रसंगोचित और सामनेवाले को मान देनेवाली वाणी बोलते हैं । श्रीरामजी में एक ऐसा अद्भुत गुण है कि जिसको पूरे देश को धारण करना चाहिए । वह गुण है कि वे बोलकर मुकरते नहीं थे ।

रघुकुल रीति सदा चलि आई ।

प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई ।।

(श्री रामचरित. अयो.कां. : 27.2)

वचन के पक्के ! किसीको समय दो या वचन दो तो जरूर पूरा करो ।

आज की राजनीति की इतनी दुर्दशा क्यों है ? क्योंकि राजनेता वचन का कोई ध्यान नहीं रखते । परहित का कोई पक्का ध्यान नहीं रखते इसलिए बेचारे राजनेताओं को प्रजा वह मान नहीं दे सकती जो पहले राजाओं को मिलता था । जितना-जितना आदमी धर्म के नियमों को पालता है, उतना-उतना वह राजकाज में, समाज में, कुटुम्ब-परिवार में, लोगों में और लोकेश्वर की दुनिया में उन्नत होता हैै ।

उपदेशक हो तो रामजी जैसा हो और शिष्य हो तो भी रामजी जैसा हो । गुरु वसिष्ठजी जब बोलते तो रामचन्द्रजी एकतान होकर सुनते हैं और सत्संग सुनते-सुनते सत्संग में समझने जैसे (गहन ज्ञानपूर्ण) जो बिंदु होते, उन्हें लिख लेते थे । रात्रि को शयन करते समय बीच में जागते हैं और मनन करते हैं कि ‘गुरु महाराज ने कहा कि जगत भावनामात्र है । तो भावना कहाँ से आती है ?’ समझ में जो आता है वह तो रामजी अपना बना लेते लेकिन जिसको समझना और जरूरी होता उसके लिए रामजी प्रातः ब्राह्ममुहूर्त में जागकर उन प्रश्नों का मनन करते थे । और मनन करते-करते उसका रहस्य समझ जाते थे तथा कभी-कभी प्रजाजनों का ज्ञान बढ़ाने के लिए गुरु वसिष्ठजी से ऐसे सुंदर प्रश्न करते कि दुनिया जानती है कि ‘योगवासिष्ठ महारामायण’ में कितना ज्ञान भर दिया रामजी ने । ऐसे-ऐसे प्रश्न किये रामजी ने कि आज का जिज्ञासु सही मार्गदर्शन पाकर मुक्ति का अनुभव कर सकता है ‘श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ के सहारे ।

कोई आदमी बढ़िया राज्य करता है तो श्रीरामचन्द्र के राज्य की याद आ जाती है कि ‘अरे !... अब तो रामराज्य जैसा हो रहा है ।’ कोई फक्कड़ संत हैं और विरक्त हैं, बोले, ‘ये महात्मा तो रमते राम हैं ।’ वहाँ रामजी का आदर्श रख देना पड़ता है । दुनिया से लेना-देना करके जिसकी चेतना पूरी हो गयी, अंतिम समय उस मुर्दे को भी सुनाया जाता है कि ‘रामनाम संग है, सत्नाम संग है । राम बोलो भाई राम... इसके राम रम गये ।’ चैतन्य राम के सिवाय शरीर की कोई कीमत नहीं । जैसे अवधपति राम के सिवाय अयोध्या में कुछ नहीं, ऐसे तुम्हारे चैतन्य राम के सिवाय इस नव-द्वारवाली अयोध्या में भी तो कुछ नहीं बचता है !

कोई आदमी गलत काम करता है, ठगी करता है, धर्म के पैसे खा जाता है तो बोले, ‘मुख में राम, बगल में छुरी ।’ ऐसा करके भी रामजी की स्मृति इस भारतीय संस्कृति ने व्यवहार में रख दी है ।

बोले : ‘धंधे-वंधे का क्या हाल है ?’

बोले : ‘रामजी की कृपा है’ अर्थात् सब ठीक है, चित्त में कोई अशांति नहीं है । भीतर में हलचल नहीं है,

द्वन्द्व, मोह नहीं है ।

यह सत्संग तुम्हें याद दिलाता है कि मरते समय भी, जो रोम-रोम में रम रहा है उस राम का सुमिरन हो । गुरुमंत्र हो, रामनाम का सुमिरन हो, जिसकी जो आदत होती है बीमारी के समय या मरते समय भी उसके मुँह से वही निकलता है ।

श्रीरामचन्द्रजी प्रेम व पवित्रता की मूर्ति थे, प्रसन्नता के पुंज थे । ऐसे प्रभु राम का प्राकट्य दिन राम नवमी की आप सबको बधाई हो !

Ref: ISSUE279-March-2017