Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

नवजात शिशु का स्वागत

नवजात शिशु का स्वागत

अष्टांगहृदयकार का कहना है कि शिशु के जन्मते ही तुरंत उसके शरीर पर चिपकी श्वेत उल्व को कम मात्रा में सेंधा नमक एवं ज्यादा मात्रा में घी लेकर हलके हाथ से साफ करें । 

जन्म के बाद तुरंत नाभिनाल का छेदन कभी न करें । ४-५ मिनट में नाभिनाल में रक्त-प्रवाह बंद हो जाने पर नाल काटें । नाभिनाल में स्पंदन होता हो उस समय उसे काटने पर शिशु के प्राणों में क्षोभ होने से उसके चित्त पर भय के संस्कार गहरे हो जाते हैं । इससे उसका समस्त जीवन भय के साये में बीत सकता है ।

स्वीडन के उपस्सला विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने यह सिद्ध किया है कि नाभिनाल-छेदन तुरंत करने पर लौह तत्त्व की कमी के कारण नवजात शिशु के मस्तिष्क के विकास में कमी रहती है, जिसके फलस्वरूप उसे भयंकर रोग होते हैं । जिन बच्चों की नाल देर से काटी जाती है उनके रक्त में पर्याप्त लौह तत्त्व रहने से मस्तिष्क का समुचित विकास होता है । क्योंकि ३ मिनट तक शिशु को माता के गर्भाशय से १० सेंटीमीटर नीचे रखने से शिशु के रक्त में ३२% वृद्धि होती है, जो उसे नाल से प्राप्त होता है ।’

बच्चे का जन्म होते ही, मूच्र्छावस्था दूर होने के बाद शिशु जब ठीक से श्वास-प्रश्वास लेने लगे, तब थोड़ी देर बाद स्वतः ही नाल में रक्त का परिभ्रमण रुक जाता है । नाल अपने-आप सूखने लगती है । तब शिशु की नाभि से आठ अंगुल ऊपर रेशम के धागे से बंधन बाँध दें । अब बंधन के ऊपर से नाल काट सकते हैं ।

फिर घी, नारियल तेल, शतावरी सिद्ध तेल, बलादि सिद्ध तेल में से किसी एक के द्वारा शिशु के शरीर पर धीरे-धीरे मालिश करें । इससे शिशु की त्वचा की ऊष्मा (गर्मी) सँभली रहेगी और स्नान कराने पर उसको सर्दी नहीं लगेगी । शरीर की चिकनाई दूर करने के लिए तेल में चने का आटा डाल सकते हैं ।

तत्पश्चात् पीपल या वटवृक्ष की छाल डालकर ऋतु अनुसार बनाये हुए हलके या उससे कुछ अधिक गर्म पानी से २-३ मिनट स्नान करायें। यदि सम्भव हो तो सोने या चाँदी का टुकड़ा डालकर उबाले हुए हलके गुनगुने पानी से भी बच्चे को नहला सकते हैं । इससे बच्चे का रक्त पूरे शरीर में सहजता से घूमकर उसे शक्ति व बल देता है ।

स्नान कराने के बाद बच्चे को पोंछकर मुलायम व पुराने (नया वस्त्र चुभता है) सूती कपड़े में लपेट के उसका सिर पूर्व दिशा की ओर रखकर मुलायम शय्या पर सुलायें । इसके बाद गाय का घी एवं शहद विषम प्रमाण में लेकर सोने की सलाई या सोने का पानी चढ़ायी हुई सलाई से नवजात शिशु की जीभ पर ॐ’ तथा ऐं’ बीजमंत्र लिखें । तत्पश्चात् शिशु का मुँह पूर्व दिशा की ओर करके आश्रम द्वारा निर्मित सुवर्णप्राश’ (१ गोली का आठवाँ भाग) को घी व शहद के विषम प्रमाण के मिश्रण अथवा केवल शहद या माँ के दूध के साथ अनामिका उँगली (सबसे छोटी उँगली के पासवाली उँगली) से चटायें । शिशु को जन्मते समय हुए कष्ट के निवारण हेतु हलके हाथ से सिर व शरीर पर तिल का तेल लगायें । फिर बच्चे को पिता की गोद में दें । पिता बच्चे के दायें कान में अत्यंत प्रेमपूर्वक बोलें : ‘ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ अश्मा भव । तू चट्टान की तरह अडिग रहनेवाला बन ! ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ परशुः भव । विघ्न-बाधाओं को, प्रतिकूलताओं को ज्ञान के कुल्हाड़े से, विवेक के कुल्हाड़े से काटनेवाला बन ! ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ हिरण्यमयस्त्वं भव । तू सुवर्ण के समान चमकनेवाला बन ! यशस्वी भव । तेजस्वी भव । सदाचारी भव । तथा संसार, समाज, कुल, घर व स्वयं के लिए भी शुभ फलदायी कार्य करनेवाला बन !’ साथ ही पिता निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण भी करे :

अंगादंगात्सम्भवसि  हृदयादभिजायसे ।

आत्मा वै पुत्रनामाऽसि सञ्जीव शरदां शतम् ।।

शतायुः  शतवर्षोऽसि  दीर्घमायुरवाप्नुहि ।

नक्षत्राणि दिशो रात्रिरहश्च त्वाऽभिरक्षतु ।।

हे बालक ! तुम मेरे अंग-अंग से उत्पन्न हुए हो और मेरे हृदय से साधिकार उत्पन्न हुए हो । तुम मेरी ही आत्मा हो किंतु तुम पुत्र नाम से पैदा हुए हो । तुम सौ वर्षों तक जियो । तुम शतायु होओ, सौ वर्षों तक जीनेवाले होओे, तुम दीर्घायु को प्राप्त करो। सभी नक्षत्र, दसों दिशाएँ दिन-रात तुम्हारी चारों ओर से रक्षा करें ।’ (अष्टांगहृदय, उत्तरस्थानम् : १.३,४)

बालक के जन्म के समय ऐसी सावधानी रखने से बालक की, कुल की, समाज की और देश की सेवा हो जायेगी ।

 

नवजात शिशु का स्वागत

आयुर्वेद के श्रेष्ठ ग्रंथ कश्यप संहिता’ में बालकों के लिए किये जानेवाले आवश्यक संस्कारों के अंतर्गत सुवर्णप्राश का उल्लेख आता है । नवजात शिशु को जन्म से एक माह तक प्रतिदिन नियमित रूप से सुवर्णप्राश देने से वह अतिशय बुद्धिमान बनता है तथा सभी प्रकार के रोगों से उसकी रक्षा होती है । सुवर्णप्राश मेधा, बुद्धि, बल, जठराग्नि तथा आयुष्य बढ़ानेवाला, कल्याणकारक व पुण्यदायी है । ६ मास तक इसका सेवन करने से बालक श्रुतिधर होता है अर्थात् सुनी हुई हर बात धारण कर लेता है । उसकी स्मरणशक्ति तीव्र होती है तथा शरीर का समुचित विकास होता है । वह पुष्ट व चपल बनता है ।

सुबह अथवा शाम को पत्थर पर २-३ बूँद शहद लेकर शुद्ध स्वर्ण (२४ कैरेट) को ४-५ बार गोल-गोल अथवा शहद का रंग थोडा-सा बदलने तक घिसें, फिर उसे बच्चे को चटा दें ।  हर महीने ३-३ बूँद शहद की मात्रा तथा ५-५ घिसने की संख्या बढ़ाते जायें । अथवा आश्रम निर्मित सुवर्णप्राश

का उसमें दी गयी विधि के अनुसार प्रयोग करें ।

नवजात शिशु के रहने का स्थान

कुमारागार के वातावरण का माता एवं शिशु के शरीर, मन एवं प्राण पर गहरा असर पड़ता है । यह स्थान शांत, स्वच्छ, पवित्र, हवादार तथा पर्याप्त प्रकाशवाला होना चाहिए । इसके लिए घर का ऐसा कमरा चुनें जिसका द्वार पूर्व या दक्षिण की ओर हो, धरती में नमी न हो, शौचालय पास में न हो । हवा तथा प्रकाश साधारण रूप से आये, तेज हवा के झोंके या धूप बच्चे अथवा माँ के शरीर पर सीधे न लगने पायें । दक्षिण की हवा स्वास्थ्यकर होती है, अतः दक्षिण की ओर यदि द्वार न हो तो एकाध खिड़की तो अवश्य हो । कमरा सामान से लदा न हो तथा वहाँ अधिक व्यक्तियों का आना-जाना न हो । नवजात शिशु को बल्ब, ट्यूबलाइट आदि के प्रकाश तथा पंखे, एयर कंडीशनर व रूम हीटर के वातावरण में नहीं रखना चाहिए ।

शीत ऋतु हो तो कुमारागार को दिन में २-३ बार गरम कर लें पर २४ घंटे अँगीठी न जलती रहे । (जहाँ अत्यधिक ठंडा वातावरण हो, वैसे यूरोपीय देशों, कनाडा आदि में यह नियम लागू नहीं पड़ता ।) कमरे में पूर्व दिशा की ओर दीपक जलायें एवं शिशु की रक्षा के लिए सुबह-शाम गूगल, अगरू, वचा, पीली सरसों, नीम के पत्ते, अजवायन, जटामासी आदि सुगंधित एवं कृमिनाशक वस्तुओं की धूप देनी चाहिए । धूप में घी मिलायें, यह बलप्रद होता है । इससे वातावरण शुद्ध, सात्त्विक व सूक्ष्म जीवाणुओं से रहित होता है ।

जन्म के बाद २४ घंटे के अंदर शिशु के मस्तिष्क में सृष्टि की संवेदनाओं को ग्रहण करने के लिए निश्चित प्रकार की प्रक्रियाएँ सक्रिय हो जाती हैं । इन २४ घंटों में बालक जिस सहजता से संस्कारों को ग्रहण करता है, वैसे पूरे जीवन में फिर कभी नहीं कर पाता । प्रारम्भिक काल की मस्तिष्क की इस संवेदनशीलता का पूरा लाभ लेते हुए बालक को सुसंस्कारों से सुसज्जित कर देना चाहिए । इस काल में बालक को सम्बोधित करते हुए कहें : तू शुद्ध है, बुद्ध है, चैतन्य है । तू अजर, अमर, अविनाशी आत्मा है । तू आनंदस्वरूप है, प्रेमस्वरूप है । तेरा जन्म अपने स्वरूप को जानकर संसार के बंधनों से मुक्त होने के लिए ही हुआ है । इसलिए तू बहादुर बन, हिम्मतवान हो । अपने में छुपी अपार शक्तियों को जागृत कर । तू सब कुछ करने में समर्थ है ।’

इस प्रकार के आत्मज्ञान, नीति व शौर्य के संस्कार इस समय बालक को दिये जायें तो वे हमेशा के लिए उसके जीवन में दृढ़ हो जाते हैं ।

शिशु के जन्म के प्रथम महीने के आखिरी दिनों में उसे सूर्य की कोमल किरणों का स्नान करायें और रात को चन्द्रदर्शन करा के कुछ समय चाँदनी में रखें ।