Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

मनुष्य-जीवन की विलक्षणता

परब्रह्म-परमात्मा में, जो अपना स्वरूप ही है, तीन भाव माने जाते हैं - सत्, चित् और आनंद । मनुष्य में इन्हीं भावों का जब विकास होता है, तभी उसमें 5 अथवा अधिक कलाओं का विकास माना जाता है । यह विकास मनुष्य में ही सम्भव है, अतः मनुष्य शरीर दुर्लभ है ।

सत् के विकास में कर्म का विकास है । चित् के विकास में ज्ञान का विकास है और आनंद के विकास में सुख का विकास है । कर्म, ज्ञान और आनंद का जैसा विकास मनुष्य के जीवन में है, वैसा सृष्टि में कहीं नहीं है । विश्व की सभ्यता और संस्कृति का इतिहास इसका साक्षी है । यह विकास अभी जारी है इसलिए मनुष्य-जन्म दुर्लभ है, जिसको प्राप्त करके हम संसार के सम्पूर्ण बंधनों, दुःखों और अनर्थों से छूट सकते हैं ।

पेड़-पौधे अपनी खुराक अपने पाँव (नीचे) से ग्रहण करते हैं और ऊपर की ओर बढ़ते हैं । शास्त्र में इनको ‘ऊर्ध्वस्रोत’ बोलते हैं । प्रकृति ने अभी उन्हें बढ़ने के लिए बहुत-सा अवकाश दिया है ।

पक्षी आगे से भोजन लेते हैं और वह पीछे जाता है । वे ‘तिर्यक्-स्रोत’ हैं । पशु एवं स्वेदज (पसीने से उत्पन्न) प्राणी भी तिर्यक्-स्रोत हैं । परंतु मनुष्य ‘अधःस्रोत’ है; वह भोजन ऊपर से लेता है और नीचे की ओर फेंकता है ।

विद्वानों ने इसका अर्थ किया है कि प्रकृति स्वयं में प्राणी को जितना उन्नत बना सकती थी, उतना उसने मनुष्य को बना दिया है । इसके आगे मनुष्य अपना स्वयं विकास करे ।

वह अपनी बुद्धि को इतनी विकसित कर सकता है कि वह परमेश्वर से एक हो जाय । यह अवसर अन्य प्राणि-शरीर में प्राप्त नहीं है । इसलिए मनुष्य का शरीर मिलना दुर्लभ है ।

इस मनुष्य-शरीर में आप आनंद की पूर्णता का अनुभव कर सकते हैं, ज्ञान की पूर्णता का अनुभव कर सकते हैं और अविनाशी जीवन प्राप्त कर सकते हैं । अविनाशी ईश्वर, पूर्ण ज्ञानस्वरूप ईश्वर, पूर्णानंदस्वरूप ईश्वर आपके हृदय में प्रकट हो सकते हैं । इसलिए यह मनुष्य का शरीर ईश्वर के अनुग्रह से प्राप्त होता है ।

हम स्वयं चाह के मनुष्य-शरीर प्राप्त नहीं कर सकते । मनुष्य-जन्म पाने में हमारी स्वतंत्रता नहीं; तो पूर्वजन्मों के पुण्यों के फल से, ईश्वर की कृपा से (अर्थात् प्रकृति के विकास से धर्म के फलस्वरूप) यह मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ है । अतः यह बड़ा दुर्लभ है । मनुष्य में स्त्री भी है और पुरुष भी । दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं । किंतु ईश्वर का अनुग्रह दोनों पर है क्योंकि दोनों सद्बुद्धिसम्पन्न मनुष्य हैं ।

‘श्रीमद्भागवत’ में आया है कि ईश्वर ने अपनी माया से तरह-तरह के शरीर बनाये - वृक्ष, रेंगनेवाले कीड़े, पशु, पक्षी, मच्छर आदि परंतु उनको देखकर उसको कोई विशेष आनंद नहीं हुआ । उसे विशेष आनंद तब हुआ जब उसने मनुष्य-शरीर की रचना को देखा, ‘अहा ! मैंने ऐसा शरीर बनाया है जिसमें ब्रह्मानुभूति की योग्यता है ।’

सब प्राणी केवल ऐन्द्रियक विषयों को ही जानते हैं किंतु अतीन्द्रिय वस्तु परमेश्वर के दर्शन का जो यंत्र है - प्रमाण वृत्ति, वह मनुष्य के अतिरिक्त और किसी प्राणी के पास नहीं है । न उनके पास साधन-चतुष्टय का अभ्यास है, न उनके पास वेद-शास्त्रादि का श्रवण है, न तो ‘अहं ब्रह्मास्मि’ इस ब्रह्माकार वृत्ति के उदय होने की कोई सामग्री ही उनके पास है । अतः मनुष्य के अतिरिक्त अन्य कोई प्राणी ब्रह्मानुभूति की योग्यता नहीं रखता । इसलिए केवल मनुष्य-योनि में ही तत्त्वज्ञान हो सकता है ।

ईश्वर का यह बड़ा अनुग्रह है कि उसने हमको यह मनुष्य का शरीर प्रदान किया है । यह तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए ही है क्योंकि अन्य योनियों से मनुष्य की विलक्षणता इसी योग्यता में है । अन्य बातें तो सभी योनियों में उपलब्ध हो जाती हैं ।