बाल्यकाल में बालक को जैसे संस्कार मिल जाते हैं, बालक आगे चलकर वैसा ही बनता है । बालक रविदास को उनकी माता करमादेवी ने भगवद्भक्ति के संस्कार दिये । बड़ों का सम्मान करना, महापुरुषों को प्रणाम करना तथा साधु-संतों की सेवा करना परम धर्म है - उनकी माता द्वारा दिये गये ये संस्कार बालक रविदास के हृदय में गहरे उतर गये थे । उनकी माता संत-महापुरुषों के भगवत्प्रीति, भगवदीय प्रेरणा के प्रसंग सुनाती थीं, जिससे यही बालक आगे चलकर संत रविदासजी के रूप में प्रसिद्ध हुआ ।
मैंने सच्चा सौदा किया है
बालक रविदास जब जूते बनाने व बेचने के अपने पिता के व्यवसाय में योगदान देने लगे थे, तब एक दिन उनके पिता रघु ने उन्हें दो जोड़ी जूते बेचने के लिए बाजार भेजा । बालक को बाजार में बैठे-बैठे दोपहर हो गयी मगर जूते नहीं बिके । इस खाली समय में वे भगवद्-भजन में मस्त रहे । तभी उन्हें दो साधु भरी दोपहरी में नंगे पाँव जाते हुए दिखे । यह देख उनके हृदय में पीड़ा हुई । उन्होंने साधुओं को ससम्मान रोककर पूछा : ‘‘महात्मन् ! इतनी गर्मी में आप नंगे पैर क्यों हैं ?’’
साधु बोले : ‘‘बेटा ! हम भगवद्-भजन में मस्त रहते हैं । बाकी जैसी प्रभु की इच्छा !’’
‘‘महाराज ! मेरे पास तो केवल दो जोड़ी जूते हैं । यदि आप इन्हें स्वीकार कर लें तो मुझे बड़ी खुशी होगी ।’’
रविदासजी की नम्रता से साधु बड़े खुश हुए । दोनों साधु जूते पहनकर रविदासजी को आशीर्वाद दे के चले गये ।
घर आने पर पिताजी ने पूछा : ‘‘दोनों जोड़ी जूते बिक गये ?’’
‘‘बिके तो नहीं मगर आज मैंने एक सच्चा सौदा किया है ।’’ उन्होंने सारी बात बता दी ।
‘‘वह तो ठीक है मगर अब इस तरह घर का खर्च कैसे चलेगा ?’’
‘‘पिताजी ! प्रभुकृपा से हमारे घर में कोई कमी नहीं आयेगी ।’’
‘‘बेटा ! साधु-संतों की सेवा करना हमारा धर्म है किंतु गृहस्थी चलाना भी हमारा कर्तव्य है ।’’
लेकिन रविदासजी तो सेवाभावना में अडिग रहेे ।
जब पूरा सामान दे डाला
रविदासजी अपना कार्य पूरी मेहनत व लगन से करते थे । जैसे संत कबीरजी कपड़ा इस भाव से बुनते थे कि ‘इसे मेरे रामजी पहनेंगे’ तो वह कपड़ा लोगों को खूब पसंद आता था, ऐसे ही रविदासजी भी जूते बनाते समय यही भाव रखते थे कि ‘इन्हें परमात्मा पहनेंगे’ । इससे उनके बनाये जूते सभीको बहुत पसंद आते थे ।
एक बार साधुओं का एक समूह रविदासजी के यहाँ आ पहुँचा । उस समय रविदासजी जूते बनाने में मग्न थे । साधुओं को घर आया देख वे बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने उनका बहुत सम्मान किया, फिर प्रणाम करके बोले : ‘‘आज माता-पिता घर में नहीं हैं इसलिए भोजन बनाकर खिलाने में मैं असमर्थ हूँ परंतु कच्चा सामान है, आप इसे ही स्वीकार करें ।’’
साधुजन भोजन का सीधा-सामान पाकर बहुत प्रसन्न हुए और रविदासजी को आशीर्वाद देेकर चले गये । शाम को जब माता-पिता घर लौटे तो रविदासजी ने सारी बात बतायी ।
पिता ने कहा : ‘‘बेटा ! यह तो तुमने बहुत पुण्य का कार्य किया है । साधु-संतों की सेवा करना ही हमारा धर्म है ।’’
जीवन में सद्गुरु की आवश्यकता व महत्ता का वर्णन संत रविदासजी ने अपनी साखियों में किया है :
रामानन्द मोहि गुरु मिल्यो, पाया ब्रह्म बिसास1 ।
राम नाम अमि2 रस पियो, रैदास हि भयो षलास3 ।।
गुरु ग्यांन दीपक दिया, बाती दइ जलाय ।
रैदास हरि भगति कारनै, जनम मरन विलमाय4 ।।
रविदास राति न सोईये, दिवस न करिये स्वाद ।
अह निस हरि जी सिमरिये, छाड़ि सकल प्रतिवाद ।।
भौ सागर दुतर अति, किंधु मूरिष यहु जान ।
रैदास गुरु पतवार है, नाम नाव करि जान ।।
संत रैदासजी (रविदासजी) गुरुविमुख लोगों के लिए हितभरी सलाह देते हुए कहते हैं कि ‘हे मूढ़ ! यह अच्छी तरह जान ले कि यह संसाररूपी सागर पार करना बड़ा कठिन है । केवल सद्गुरुरूपी नाव ही तुझे पार लगा सकती है । अतः उनके नाम (स्मरण) रूपी नाव पर सवार होकर इस संसाररूपी सागर को पार कर ले ।’