जब सीताजी की खोज हेतु हनुमानजी सागर-तीर पर खड़े थे और सभी वानर वीर उस पार जाने का विचार कर रहे थे तब जाम्बवानजी ने हनुमानजी को उत्साहित करने के लिए कहा : ‘‘हे हनुमान ! तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो । तुम बुद्धि, विवेक और विज्ञान की खान हो । जगत में ऐसा कौन-सा काम है जो तुमसे न हो सके ! श्रीरामजी के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है ।’’
जाम्बवानजी के वचन हनुमानजी के हृदय को बहुत अच्छे लगे । क्यों ? क्योंकि रामकाज को उत्साहित करने के लिए बोल रहे थे । जो कोई आपके उत्साह को तोड़ने की बात कहे, समझना कि ‘यह हमारा हितैषी नहीं है ।’ पर आपका वह कार्य शास्त्र और संत सम्मत भी होना चाहिए । बात तो ऐसी करनी चाहिए कि जिससे सामनेवाले व्यक्ति के मन में साधन-भजन हेतु व अपने कर्तव्य को पूरा करने में और उत्साह बढ़े ।
संत तुलसीदासजी कहते हैं :
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा ।
चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ।।
छोटे-छोटे बंदरों को भी हनुमानजी ने प्रणाम किया क्योंकि हनुमानजी में मान की इच्छा नहीं है । मान का हनन किया तभी तो वे ‘हनुमान’ हैं । हमको वे सुंदर सीख देते हैं कि सेवक को कैसे मान-मत्सर (द्वेष, क्रोध) से रहित होना चाहिए । केवल मानरहित रहेगा तो हृदय में अभिमान आ जायेगा । अतः आगे तुरंत लिख दिया कि हृदय में अपने स्वामी श्रीरामजी को धारण करके प्रसन्न होकर चले । सेवक के मन में प्रसन्नता होनी चाहिए कि ‘मैं मेरे स्वामी का सेवाकार्य कर रहा हूँ या करने जा रहा हूँ ।’ अगर समर्पण, अहोभाव एवं प्रसन्नता नहीं रखेगा तो मन में फल की इच्छा या परिणाम का भय आ जायेगा ।
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर ।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ।।
वहीं सागर के किनारे एक बड़ा सुंदर पर्वत था, जिस पर जाम्बवानजी के वचनों से उत्साहित हुए हनुमानजी खेल में (अनायास ही) कूदकर ऊपर चढ़ गये और उस पर से बड़े वेग से उछलकर श्रीरामजी के अमोघ बाण की तरह चले अर्थात् साधक को अपनी साधना में तीर की तरह सीधा लक्ष्य की तरफ बढ़ना चाहिए, न दायें देखे न बायें । जैसे अमोघ बाण अपने लक्ष्य को बेधकर ही रुकता है, ऐसे ही स्वामी की सेवा में सेवक को भी हमेशा सावधान और सफल होने के लिए कृतनिश्चय (निश्चय करनेवाला) होना चाहिए । ‘किसी भी कारण चूकना नहीं है’ ऐसा निश्चय मन में रखना चाहिए ।
समुद्र ने देखा कि रामजी के दूत हनुमानजी आये हैं तो विचार करके मैनाक पर्वत को कहा : ‘‘तुम श्रमहारी बन जाओ, इनको थोड़ा विश्राम दो ।’’ ऐसे ही सेवक जब सेवा करता है तो मान-सम्मान, यश मिलता है, लोग आदर-सत्कार करते हैं पर सेवक को उसमें फँसना नहीं है, रुकना नहीं चाहिए । तब क्या करना चाहिए ? हनुमानजी उदाहरण प्रस्तुत करते हैं :
हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम ।
हनुमानजी ने उसका बिल्कुल तिरस्कार नहीं किया, हाथ से छुआ अर्थात् अनादर नहीं किया ।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ।
अर्थात् रामजी का कार्य पूर्ण किये बिना मेरे लिए विश्राम कहाँ !
इसी तरह अपने साध्य को पाये बिना साधक को विराम वर्जित है । राही को अपनी मंजिल पाये बिना रुकना नहीं चाहिए । साधना को बीच में रोका तो साधक कैसा और सेवक ने स्वामी का कार्य पूरा हुए बिना विश्राम किया तो वह सेवक ही कैसा ! सेवक तो अथक रूप से अनवरत सेवा करता है, यही उसकी साधना है । जो अपने कर्तव्य का प्रेमी होता है वह विश्राम नहीं करता । संत ने सीख दी है कि आराम किया तो राम छूट जायेगा । यहाँ आराम का तात्पर्य लौकिक या शारीरिक तौर पर है । मानसिक रूप से आराम करना अथवा मन के संकल्प-विकल्प को कम करके शांत व अंतर्मुख होना, आत्मा में विश्राम पाना यह तो कार्य-साफल्य की सर्वोत्तम कुंजी है । हनुमानजी भी आत्मविश्रांति पाते थे, प्रतिदिन ध्यान करते थे । ध्यान में विश्राम पाना यह तो जीवन में परम आवश्यक है । दुनियावी सुख की चाह की तो साधना छूट जायेगी । आराम करना है तो अपने-आपमें आराम करो । दूत, सेवक और साधक कैसा होना चाहिए यह बात हनुमानजी के चरित्र से प्रकट होती है । तुलसीदासजी ने सुंदरकांड में जो सुंदर सीख दी है वह सबके लिए सुखकर है ।
Ref: ISSUE291-March-2017