जो अपने-आपको विषय-विकारों में, चिंताओं में, दुःखों में धकेलता है, वह अंधकूप में गिरता है और जो अपने-आपको भगवत्प्रकाश में, भगवद्ज्ञान में, भगवत्शांति में, भगवन्माधुर्य में, भगवत्प्रेम में पहुँचाता है, वह वास्तव में मनुष्य-जीवन का फल पाता है । मनुष्य-जीवन में दो चीजें नितांत आवश्यक हैं - बुद्धि और श्रद्धा । बिना श्रद्धा के बुद्धि शुष्क, उद्दंड हो जायेगी, बम बनायेगी, लोगों का शोषण करके बड़ा बनने के रास्ते जायेगी ।
बिंदुसार का पुत्र था सम्राट अशोक । उसको राज्य मिला तो राज्य का विस्तार, विस्तार, और विस्तार करते-करते उसने कलिंग देश, जिसको आज कालाहांडी (ओड़िशा) बोलते हैं, उस पर चढ़ाई कर दी । लड़ाई करते-करते महीना-दो महीना, एक वर्ष-दो वर्ष करते चार वर्ष बीत गये । दोनों पक्षों के लाखों-लाखों सैनिक मरे पर कोई नतीजा नहीं आ रहा था । अशोक चिंतित था, इतने में सेनापति दौड़ा-दौड़ा आया, बोला : ‘‘महाराज की जय हो ! खुशखबर है; कलिंग देश का सम्राट युद्ध में मारा गया । अब हमारी जीत हुई है ।’’
जीत क्या हुई है, सदा के लिए हार हो गयी । क्या यह खुशखबर है कि कोई मारा गया और हमें सम्पदा मिलेगी ! यह बुद्धिमानों का बुद्धिवाद है । जिनको जीवन का मूल्य पता नहीं वे वासनावान, अहंकारी इसे खुशखबरी मानते हैं । लोगों की हत्या करके, लोगों से कर (टैक्स) लेकर देश-परदेश में खूब धन जमा करने का अवसर मिलेगा - यह खुशखबरी है ? दूसरों के बच्चे बिना दूध के, बिना आहार के, बिना पढ़ाई के, बिना वस्त्रों के नंगे-भूखे घूम रहे हैं और आप बेईमानी करके, देश को शोषित करके देश-परदेश में पैसा जमा कर रहे हैं - यह बुद्धिमत्ता है ?
अन्धं तमः प्रविशन्ति... (ईशावास्योपनिषद् : १२)
उपनिषद् कहती है वे अंधकार में फँस जाते हैं ।
इस कथा के साथ सम्राट अशोक को सबके मंगल में लगानेवाली एक कन्या का इतिहास जुड़ा है । सेनापति बोला : ‘‘परंतु चिंता की बात है कि अभी तक दुर्ग का द्वार खोलने में हम सफल नहीं हो पाये ।’’
अशोक : ‘‘कोई बात नहीं, कल सुबह हम स्वयं सेना की आगेवानी करेंगे और दुर्ग का द्वार खुलवा देंगे ।’’
सुबह अशोक और उसकी सेना दुर्ग के द्वार के पास पहुँची । सम्राट ने अपनी सेना को सम्बोधित किया : ‘‘मगध के बहादुरो ! तुम्हारे अथक प्रयास से कलिंग देश का राजा मारा गया है । अब दुर्ग का द्वार खोलना है । आज मेरी आगेवानी में दुर्ग का द्वार खोला जायेगा ।’’
अन्धं तमः प्रविशन्ति...
बाहर की सम्पदावाले का द्वार खोलना यह अंधकूप में गिरना है किंतु अपने हृदय का द्वार खोलकर हृदयेश्वर का ज्ञान पाना यह प्रकाशपुंज प्रकटाना है । जीवन में ज्ञान का, सजगता का, विवेक का प्रकाश हो और श्रद्धा हो । बिना विवेक की श्रद्धावाले को कोई भी फँसा देता है । ऐसे श्रद्धालुओं का शोषण होता रहता है । यह विवेक तुम्हें जगाता है । विवेक के बिना श्रद्धा अंधी होती है, कहीं-न-कहीं अनुचित स्थान पर फँसी रहती है और श्रद्धा के बिना विवेक उद्दंड होता है । मनमाना सफलता का मापदंड लेकर चल पड़ता है । उसी रास्ते था अशोक ।
दुर्ग का द्वार खोलने के लिए सैनिकों को उत्साहित किया, रणभेरी, विजय का बिगुल बजवाया । अपने बल से द्वार खोलें उसके पहले अचानक द्वार खुल गया । अंदर से पद्मा नाम की राजकन्या घोड़े पर सवार होकर अपनी कई महिला सैनिकों के साथ गर्जना करती हुई निकली ।
पद्मा बोली : ‘‘सम्राट अशोक ! दुर्ग में प्रवेश करने का दुस्साहस न करो । जब तक हमारे शरीर में प्राण हैं, तब तक तुम दुर्ग में प्रवेश नहीं कर सकते । मेरे पिता के हत्यारे ! अपने लाखों-लाखों सैनिकों को कुर्बान करके अहं पोसनेवाले और हमारे लाखों सैनिकों की जान लेकर अपनी वासना की तृप्ति में लगे हुए अंधकूप में जानेवाले सम्राट ! सावधान !!’’
धन कमा के, सत्ता कमा के, चीजें कमा के बड़ा बनने की जो अंध-परम्परा है, उसको कलिंग देश की एक कन्या ने ललकार दिया । सत्संगी कन्या ने कहा : ‘‘तुम्हारे पिता बिंदुसार का राज्य भी तुम नहीं ले जाओगे तो दूसरों का राज्य छीनकर क्या करोगे ? कई राजाओं को तुमने मौत के घाट उतारा । लाखों आदमी मर गये । कितने सैनिकों के मासूम बच्चे रोते होंगे, कितने सैनिकों की माताएँ रोती होंगी, कितने सैनिकों की पत्नियाँ रोती होंगी... तुमने कइयों को अनाथ बना दिया । यह राज्यसत्ता है कि अंधसत्ता है ? राजा तो प्रजा का पालक, मानवता का पालक होना चाहिए । राजा ही मानवता का विनाशी हो गया !’’
अभी हम ७०० करोड़ लोग हैं । हम मर-मर के सात बार मरें इतने बम तो तैयार हैं लेकिन फिर भी रात-दिन बम बनाये जा रहे हैं । दूसरों को मारकर, लूट-खसोटकर बड़ा बनना यह अंधकूप में गिरना है ।
सासु ! तुम बहू को मत दबोचो । बहू ! तुम सासु को मत नीचा दिखाओ । जेठानी ! देवरानी की निंदा करके अंधकूप में मत गिरो बेटी ! देवरानी ! जेठानी में दोष देखकर अंधकूप में मत गिरो । पड़ोसी-पड़ोसी एक-दूसरे को नीचा दिखाकर अपना मन, जीवन अंधकूप में मत गिराओ । नित्य प्रकाश में रहो । वेद कहता है :
असतो मा सद्गमय ।
हम असत्य से बचकर सत्य की तरफ जायें । तो सत् क्या है, असत् क्या है - यह अंधकार में नहीं दिखेगा । इसीलिए वेद भगवान की प्रार्थना है : तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
अंधकार से निकलकर हम प्रकाश में जियें ।
‘‘सम्राट ! तुम अंधकूप में स्वयं परेशान हो और अपनी प्रजा को भी परेशान कर रहे हो । प्रजा से कर नोचकर लोगों को मरवा रहे हो । तुम्हें शांति नहीं है । तुम अपने दिल पर हाथ रखो, क्या तुम्हारे जीवन में है बरकत ? है प्रसन्नता ? है शांति ? नाच-गान, ऐश-आराम और मारकाट, लूट-खसोट, अधिकार-लोलुपता के अलावा तुम्हारी qजदगी में कोई और चीज है ? तुम्हें द्वार में प्रवेश करने के पहले हमसे युद्ध करना होगा । तुमने मेरे पिता की हत्या की है, हमारे देशवासियों की हत्या की है । मैं तुमको नहीं छोडूँगी ! जब तक मैं qजदा हूँ, तुम इस द्वार के अंदर नहीं जा सकते ।’’
अशोक बोला : ‘‘तुम तो स्त्री-जाति हो, स्त्री के ऊपर हथियार उठाना अधर्म है ।’’
‘‘आज तक तुमने क्या धर्म किया है ? निर्दोष प्रजा को अपना अहं पोसने के लिए मरवाया । तुम क्या ले जाओगे साथ में ? राज्य में संतोष नहीं है । इनको मारा, उनको मारा... अपनी लोभ-वासना को तो मारा नहीं, अपने अहंकार को, अपनी पाप की इच्छा को तो मारा नहीं, दूसरों को मारकर तुमने क्या किया ? तुम धर्म की बात करते हो ? तुमने क्या धर्म किया है ?’’
सम्राट अशोक निरुत्तर हो गया । पद्मा का सारगर्भित सत्संग सुनकर अशोक ने सोचा कि ‘आज से मैं यह qहसा का रास्ता, शोषण का रास्ता, अहं पोसने का रास्ता, विषय-विकारों का रास्ता त्यागता हूँ और सत्संग की शरण जाऊँगा ।’
अशोक ने हाथ में पकड़ी हुई तलवार फेंक दी और सिर नीचे करते हुए कहता है : ‘‘कलिंगनरेश की कन्या ! मैं तुम्हारे पिता का हत्यारा हूँ और तुम्हारे कलिंग देश के लाखों लोगों का हत्यारा हूँ । मैं गुनहगार हूँ । यह सिर झुकाकर रखता हूँ तुम्हारे सामने, तुम अपनी चमचमाती तलवार से बदला ले सकती हो ।’’
तब भारत की कन्या कहती है : ‘‘सम्राट ! निहत्थे पर वार करना हमारे धर्म में नहीं है । आप तलवार उठाइये और युद्ध करिये ।’’
अशोक : ‘‘नहीं, अब युद्ध नहीं होगा । तुमने मेरी आँखें खोल दीं । यह वासना है, अहंकार है कि मेरा राज्य और... और बढ़े ।’’
पद्मा : ‘‘तो हमने तुमको हृदयपूर्वक माफ किया, तुम्हारा मंगल हो ।’’
क्या एक प्रकाश में जीनेवाली कन्या, सत्संग में जीनेवाली कन्या अशोक का हृदय बदलने में सफल नहीं हुई ?
अशोक : ‘‘अभी भी मुझे अशांति है । मुझे शांति कैसे मिले ?’’
पद्मा : ‘‘सम्राट ! युद्ध करने से, सत्ता बढ़ाने से शांति नहीं मिलती । निरपराध लोगों की हत्या करके अहं पोसने से भी कदापि शांति नहीं मिलती ।’’
‘‘ठीक कहती हो राजकन्या !’’
‘‘अब अपने आत्मा की अशांति को, भीतर की लानत को मिटाना हो तो जाओ, जो सैनिक कराह रहे हैं उन्हें देखो ।’’
उधर रणभूमि में गये तो क्या देखते हैं कि हजारों-हजारों लाशें पड़ी हैं । हजारों-हजारों अधमरे होकर कराह रहे हैं... किसीकी भुजा कटी है तो किसीका पैर कटा है तो किसीको पेट में बाण लगे हैं । किसीकी आँखें गयी हैं तो किसीका कुछ... उस दृश्य को निहारता है अशोक । हृदय पानी-पानी हो गया कि ‘हे अज्ञान ! हे नासमझी !! तुझे धिक्कार है ! कितने लोगों की जानें, कितने लोगों का धन लेकर तू बड़ा बनना चाहता है !’
साधु लोग घायलों की मरहमपट्टी कर रहे हैं, किसीको पानी पिला रहे हैं । ‘ओ... हो ! मेरे एक अज्ञान के कारण कि मैं सम्राट अशोक हूँ और बड़ा बनूँ... बड़ा बननेवाला शरीर तो मर जायेगा और मैंने इतने लोगों की जानें लीं ! ओ बाप रे ! मुझे शांति कौन देगा ?’
अशोक : ‘‘हे साधु ! मेरे कर्मों ने मुझे अशांत किया है, मुझे शांति कैसे मिलेगी ?’’
जो साधु-संत सेवा कर रहे थे वे बोले : ‘‘अरे, शांति मिलेगी । निर्णय करो कि दूसरों को सताकर मैं सुखी होने की गलती नहीं करूँगा ।
अपने दुःख में रोनेवाले...
काम आना सीख ले ।।
किसीकी जान लेना मत सीखो, किसीके काम आना सीखो । जो दूसरों के दुःख नहीं हरता, उसका दुःख मिटता नहीं और जो दूसरों को दुःखी करके सुखी होता है, उसका दुःख बढ़ जाता है । तुम्हारी वही दशा है ।’’
अशोक : ‘‘तो मैं क्या करूँ ?’’
‘‘सत्यं शरणं गच्छामि । आत्मा सत्य है, परमात्मा सत्य है, उसकी शरण आओ । शरीर मिथ्या है, अहंकार मिथ्या है, वासना मिथ्या है । बच्चे की बचपन की वासना अलग होती है । युवक की जवानी की वासना अलग होती है और अलग-अलग युवकों की अलग-अलग वासना होती है । वासना सत्य नहीं है । वासना के पहले जो वासना को जानता है, वासनापूर्ति के बाद जो वासना की पोल जानता है वह परमात्मा सत्य है । तुम परमात्मा की शरण क्यों नहीं जाते हो ? तुमसे वह दूर नहीं है, दुर्लभ नहीं है, परे नहीं है, पराया नहीं है । दूर देशों पर हावी होकर, कत्लेआम करवाकर मैं बड़ा राजा हूँ... लंकापति रावण की लंका नहीं बची तो सम्राट अशोक तुम्हारा यह नगर बचेगा क्या ? तुम्हारा शरीर बचेगा क्या ?’’
‘‘नहीं, अब मैं क्या करूँ ?’’
‘‘क्या करूँ ? अब सत्य की शरण चलो । किसीको दुःख न दो । किसीको बुरा न मानो, किसीका बुरा न चाहो, किसीका बुरा न करो; सबकी भलाई सोचो । सम्राट अशोक ! तुम ऐतिहासिक पुरुष हो जाओगे ।’’
‘‘जो आज्ञा महाराज !’’
दूसरों को सताकर बड़ा बननेवाला अशोक पहले अहंकार की शरण था, सत्संग के दो वचन सुनकर कि ‘दूसरों में भी अपना आत्मा-परमात्मा है’, सत्य की शरण गया । सम्राट अशोक ने प्रण कर लिया कि ‘अब मैं हथियार नहीं उठाऊँगा ।’ फिर राज्य तो किया पर हथियार नहीं उठाया । आज भी सम्राट अशोक का अशोकचिङ्घ भारत सरकार के रुपयों पर है ।
सत्संग ने क्या कमाल कर दिया ! कितना हत्यारा व्यक्ति और पद्मा के मुँह से सत्संग के दो वचन मिले, साधु के मुँह से सत्संग के दो वचन मिले तो लाखों लोगों की जान लेनेवाला मानवीय संवेदनाविहीन अशोक लाखों के आँसू पोंछनेवाला सम्राट अशोक हो गया, क्रूर सम्राट में से सज्जन सम्राट हो गया ।