‘प्रणव’ (ॐ) की महिमा – ( अंक – 252)
सूतजी ने ऋषियों से कहा : ‘‘महर्षियो ! ‘प्र’ नाम है प्रकृति से उत्पन्न संसाररूपी महासागर का । प्रणव इससे पार करने के लिए (नव) नाव है । इसलिए इस ॐकार को ‘प्रणव’ की संज्ञा देते हैं । ॐकार अपना जप करनेवाले साधकों से कहता है - ‘प्र-प्रपंच, न-नहीं है, वः-तुम लोगों के लिए ।’ अतः इस भाव को लेकर भी ज्ञानी पुरुष ‘ॐ’ को ‘प्रणव’ नाम से जानते हैं । इसका दूसरा भाव है : ‘प्र-प्रकर्षेण, न-नयेत्, वः-युष्मान् मोक्षम् इति वा प्रणवः । अर्थात् यह तुम सब उपासकों को बलपूर्वक मोक्ष तक पहुँचा देगा ।’ इस अभिप्राय से भी ऋषि-मुनि इसे ‘प्रणव’ कहते हैं । अपना जप करनेवाले योगियों के तथा अपने मंत्र की पूजा करनेवाले उपासकों के समस्त कर्मों का नाश करके यह उन्हें दिव्य नूतन ज्ञान देता है, इसलिए भी इसका नाम प्रणव - प्र (कर्मक्षयपूर्वक) नव (नूतन ज्ञान देनेवाला) है ।
उन मायारहित महेश्वर को ही नव अर्थात् नूतन कहते हैं । वे परमात्मा प्रधान रूप से नव अर्थात् शुद्धस्वरूप हैं, इसलिए ‘प्रणव’ कहलाते हैं । प्रणव साधक को नव अर्थात् नवीन (शिवस्वरूप) कर देता है, इसलिए भी विद्वान पुरुष इसे प्रणव के नाम से जानते हैं अथवा प्र - प्रमुख रूप से नव - दिव्य परमात्म-ज्ञान प्रकट करता है, इसलिए यह प्रणव है ।
यद्यपि जीवन्मुक्त के लिए किसी साधन की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह सिद्धरूप है, तथापि दूसरों की दृष्टि में जब तक उसका शरीर रहता है, तब तक उसके द्वारा प्रणव-जप की सहज साधना स्वतः होती रहती है । वह अपनी देह का विलय होने तक सूक्ष्म प्रणव मंत्र का जप और उसके अर्थभूत परमात्म-तत्त्व का अनुसंधान करता रहता है । जब शरीर नष्ट हो जाता है, तब वह पूर्ण ब्रह्मस्वरूप शिव को प्राप्त कर लेता है - यह सुनिश्चित है । जो अर्थ का अनुसंधान न करके केवल मंत्र का जप करता है, उसे निश्चय ही योग की प्राप्ति होती है । जिसने इस मंत्र का ३६ करोड़ जप कर लिया हो, उसे अवश्य ही योग प्राप्त हो जाता है । ‘अ’ शिव है, ‘उ’ शक्ति है और ‘मकार’ इन दोनों की एकता है । यह त्रितत्त्वरूप है, ऐसा समझकर ‘ह्रस्व प्रणव’ का जप करना चाहिए । जो अपने समस्त पापों का क्षय करना चाहते हैं, उनके लिए इस ह्रस्व प्रणव का जप अत्यंत आवश्यक है ।
वेद के आदि में और दोनों संध्याओं की उपासना के समय भी ॐकार का उच्चारण करना चाहिए ।’’
भगवान शिव ने भगवान ब्रह्माजी और भगवान विष्णु से कहा : ‘‘मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत मंत्र का उपदेश किया है, जो ॐकार के रूप में प्रसिद्ध है । वह महामंगलकारी मंत्र है । सबसे पहले मेरे मुख से ॐकार (ॐ) प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूप का बोध करानेवाला है । ॐकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ । यह मंत्र मेरा स्वरूप ही है । प्रतिदिन ॐकार का निरंतर स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है ।
मुनीश्वरो ! प्रतिदिन दस हजार प्रणवमंत्र का जप करें अथवा दोनों संध्याओं के समय एक-एक हजार प्रणव का जप किया करें । यह क्रम भी शिवपद की प्राप्ति करानेवाला है ।
‘ॐ’ इस मंत्र का प्रतिदिन मात्र एक हजार जप करने पर सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती है ।
प्रणव के ‘अ’, ‘उ’ और ‘म्’ इन तीनों अक्षरों से जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन होता है - इस बात को जानकर प्रणव (ॐ) का जप करना चाहिए । जपकाल में यह भावना करनी चाहिए कि ‘हम तीनों लोकों की सृष्टि करनेवाले ब्रह्मा, पालन करनेवाले विष्णु तथा संहार करनेवाले रुद्र जो स्वयंप्रकाश चिन्मय हैं, उनकी उपासना करते हैं । यह ब्रह्मस्वरूप ॐकार हमारी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों की वृत्तियों को, मन की वृत्तियों को तथा बुद्धि की वृत्तियों को सदा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले धर्म एवं ज्ञान की ओर प्रेरित करे ।’ प्रणव के इस अर्थ का बुद्धि के द्वारा qचतन करता हुआ जो इसका जप करता है, वह निश्चय ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है । अथवा अर्थानुसंधान के बिना भी प्रणव का नित्य जप करना चाहिए ।’’
(‘शिव पुराण’ अंतर्गत विद्येश्वर संहिता से संकलित)
Ref: ISSUE252-DECEMBER-2013