Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

मोक्ष नित्य है या अनित्य?

शंका : ब्रह्मविद्या का प्रयोजन मोक्ष की सिद्धि है और वह ब्रह्मात्मैक्य-बोध (आत्मा और ब्रह्म की एकता का ज्ञान) से होती है । ठीक है, पर वह मोक्ष नित्य है या अनित्य ?

यदि अनित्य है तो अनित्य से वैराग्य होना चाहिए । अनित्य मोक्ष की आवश्यकता ही नहीं । यदि मोक्ष नित्य है तो वह साधनजन्य नहीं होगा क्योंकि नित्य वस्तु को प्राप्त करने के लिए साधन की आवश्यकता नहीं होती । उस दशा में शास्त्र-विहित सब साधन अनावश्यक सिद्ध होंगे । यदि कहो कि ब्रह्मज्ञान की सार्थकता है ही तो यह तभी सम्भव है जब बंधन अज्ञान से सिद्ध हो । परंतु आत्मा जब ब्रह्म ही है, तब उसमें अज्ञान और तज्जन्य (उसके द्वारा उत्पन्न) भ्रम की उपस्थापना हास्यास्पद है । असल में आत्मा ब्रह्म नहीं है, जैसा प्रत्येक व्यक्ति का सहज अनुभव भी है और जैसा शास्त्र में दोनों का भेद बताया भी गया है । जीव अल्पज्ञ, परिच्छिन्न, संसारी है और ब्रह्म सर्वज्ञ, अपरिच्छिन्न, सर्वशक्तिमान है । बंधन भी प्रत्येक जीव का सहज अनुभव है । अतः बंधन सत्य है और बंधन की निवृत्ति ज्ञान से नहीं हो सकती, वह कर्म, उपासना, योग की अपेक्षा रखती है । अतः ब्रह्मविद्या का विचार निरर्थक है ।

समाधान : मोक्ष नित्य है फिर भी इसके लिए जो साधन शास्त्र में वर्णित हैं वे व्यर्थ नहीं हैं । मोक्ष आत्मा का अपना स्वरूप ही है, अन्य नहीं है Ÿ। हम कहीं बँधे नहीं हैं । बंधन एक कल्पना है, भ्रम है । विचार करके देखो कि बचपन से अब तक हम कितनों के साथ बँधे और छूटे ।

धन के साथ बँधे, वह चला गया । स्त्री, पुत्र, मित्र सबके साथ अपने को बँधा समझते रहे किंतु सब बदलता गया । इनके आने पर बंधन का भ्रम होता है पर हम ज्यों-के-त्यों हैं । हमें कोई बाँध नहीं सकता । सपनों के समान ये आते-जाते रहते हैं और मोक्ष अपना सहज स्वरूप है । अपने स्वरूपभूत मोक्ष की प्राप्ति में जो प्रतिबंध है - बंधन का भ्रम है, उसे दूर करने के लिए साधन की आवश्यकता है और इसीलिए शास्त्र की सार्थकता है । मोक्ष को उत्पन्न करने के लिए साधन की आवश्यकता नहीं है, अन्यथा मोक्ष भी निश्चित अनित्य ही होगा । भगवान शंकराचार्यजी कहते हैं :

रोगार्तस्यैव रोगनिवृत्तौ स्वस्थता ।

स्वास्थ्य हमारा स्वरूप है किंतु सर्दी-गर्मी से, वात-पित्त-कफ के प्रकोप से या और किसी कारण से शरीर में रोग आ गया तो उसके निवारण के लिए औषध-सेवन कर लेते हैं । स्वस्थ तो हम रोग से पहले भी थे और रोगनिवृत्ति के बाद भी रहेंगे । इसी प्रकार मोक्ष अपना स्वरूप है । उसमें जो बंधन का भ्रम आ गया है, उसे दूर करने के लिए ब्रह्मज्ञान की आवश्यकता है । ब्रह्मज्ञान के लिए ब्रह्मविचार की आवश्यकता है । और शास्त्र ब्रह्मविचाररूप हैं इसलिए शास्त्र की आवश्यकता है । शास्त्र में वर्णित सभी साधन परस्पर ब्रह्मज्ञान में सहकारी हैं ।