(पूज्य बापूजी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)
सात सौ करोड़ लोग धरती पर हैं । कोई ऐसा नहीं कह सकता कि ‘मैंने फलाना काम दुःखी होने के लिए किया था अथवा फलाना काम दुःखी होने के लिए करता हूँ ।’ सारे जीव, सभी मनुष्य सुबह से शाम तक, जीवन से मौत तक, जीवन भर सुख को थामने और दुःख को भगाने में लगे हैं । फिर भी देखा जाता है कि जीवन में कहीं-कहीं थोड़ा-सा सुख आया, बाकी तो दुःख-ही-दुःख हैं ।
ऋषि से उनके शिष्यों ने प्रश्न किया : ‘‘मनुष्य रोते हुए जन्मता है, फरियाद करते हुए जीता है और निराश होकर मरता है, इसके पीछे क्या कारण है ?’’
ऋषि ने उत्तर दिया : ‘‘प्रश्न तो बढ़िया है, मानवमात्र का मंगल करनेवाला है । मनुष्य का वास्तविक सुखस्वभाव, चेतनस्वभाव अकालपुरुष से स्फुरित है । जैसे हर तरंग का मूल स्थान पानी है, ऐसे ही हर जीव का मूल स्थान सच्चिदानंद चैतन्य आत्मा है । वह उस आत्मदेव की प्रीति, आत्मदेव के ज्ञान से स्फुरित होता है । लेकिन बाहर के दृश्य जगत को, माया को सत्य मानकर ‘यह पा लूँ, यह भोग लूँ, यह कर लूँ तो मैं सुखी हो जाऊँ’ इस वहम से, इस नासमझी से जीव एक दुःख से दूसरे दुःख, दूसरे दुःख से तीसरे दुःख में भटकता रहता है ।’’
‘‘तो इसका उपाय ?’’
बोले, जिसके जीवन में बाह्य सुख और दुःख, बाह्य अनुकूलता और प्रतिकूलता का ज्यादा महत्त्व है, वह छोटे मन का आदमी है । लेकिन जो बाहर की अनुकूलता को बहुजनहित में लगा देता है, प्रतिकूलता में सम रहता है, दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । (गीता : २.५६) जो दुःख में उद्विग्न नहीं होता, सुख में आसक्ति नहीं रखता, ऐसा समत्वयोग को जाननेवाला पुरुष सुख-दुःख के बीच के सत्तास्वरूप साक्षी चैतन्य में टिकता है, वह बाजी मार लेता है ।
सत्संग के बिना एक तो कान के द्वारों से संसार घुसता है, दूसरा आँख के दरवाजों से घुसता है । आँख से कम कान से ज्यादा घुसता है । किसीकी निंदा कान से सुनकर उसके प्रति नफरत हो जाती है । किसी स्थान की प्रशंसा कान से सुनकर उससे आसक्ति हो जाती है । नफरत और आसक्ति हमारी आध्यात्मिक उन्नति में खलबली करती रहती हैं । जैसे पानी में उठ रही तरंग-पर-तरंग शांत पानी की गहराई नहीं देखने देती हैं, ऐसे ही जीव शांत, सुखस्वरूप, चेतनस्वरूप है लेकिन अनुकूलता के लिए तड़प और प्रतिकूलता से भागाभागी की दौड़ में जीव का हौसला खो गया है । भगवदाश्रय, सत्संग का आश्रय लेने से खोये हुए हौसले को फिर पा सकते हैं ।
दक्ष ने बाहर की सफलता को सर्वोपरि माना । हालाँकि दक्ष कोई साधारण राजा नहीं था, कई लोकपालों का अध्यक्ष था । कई राजे-महाराजे जिनके अधीन रहें, ऐसे लोकपालों का भी परम अध्यक्ष और भगवान शिवजी का ससुर था । फिर भी बाहर की चीजों को महत्त्व दिया और अंतरात्मा में गोता मारने से विमुख हो गया तो दक्ष की सारी करी-कमाई चौपट हो गयी, यज्ञ-विध्वंस हुआ, सिर कटा और बकरे का सिर लगा । अभी भी शिवालय में लोग ‘बैं-बैं...’ करके याद दिलाते हैं कि ईश्वर की प्रीति के बिना, ईश्वर की शांति के बिना तुम बाहर कितनी भी ‘मैं-मैं...’ करोगे, आखिर थक के संसार से रवाना हो जाओगे ।
हमारे लिए माँ के शरीर में दूध बनाने की सत्ता उसीकी है । माँ की जेर से नाभि जोड़ने की सत्ता, करुणा उसीकी है । उस परमात्मा के चिंतन से हमारी बुद्धि में परमात्म-रस, परमात्म-ज्ञान, परमात्म-समता आ जाय तो हम संसार में आसानी से सफल हो सकते हैं ।
राजा उत्तानपाद की दो पत्नियाँ थीं, सुरुचि और सुनीति । ध्रुव की माँ थी सुनीति । जो सामने दिखे मन उसके लिए ललक जाय और आगे-पीछे का विचार किये बिना उसके पीछे लग जाय, वह है सुरुचि । आज के जमाने में सुरुचि की दौड़ में लोग बड़े परेशान हो रहे हैं । अनिद्रा का रोग, आत्महत्या की मुसीबत, प्रेमी-प्रेमिकाओं को एड्स, यह सब सुरुचि का ही परिवार है । ‘जिसमें रुचि हुई, वह कैसे भी करके करने लगो । चोरी, बेईमानी, कपट कुछ भी करके रुचि के अनुसार पाओ, खाओ, मजा करो’ - यह दुःख का कारण है । परिणाम का विचार करके और परिणामों को सफलता देनेवाले परमात्मा में गोता मारकर निर्णय करना, भोगना या पाना यह हो गयी सुमति ।
सुमति की धनी सुनीति का बेटा ध्रुव था और सुरुचि का बेटा उत्तम था । सुरुचि के जीवन में कलह, अशांति रही और उसके पुत्र के जीवन में भी देख लो । वह यक्षों से मारा गया, राजपाट चला गया । सुनीति के बेटे ध्रुव को भगवान के प्यारे संत नारदजी का सत्संग मिला, भगवन्नाम की दीक्षा मिली । सुनीति के पुत्र की मति सुमति हुई, राज्य भी अच्छी तरह से सँभाला और ब्रह्मज्ञान भी पाया । जहाँ सुरुचि है वहाँ आदमी एक दुःख से निकलता है तो दूसरे दुःख में गिर पड़ता है लेकिन जहाँ सुमति है वहाँ दुःख आता है तो भी उसकी शक्ति बढ़ाता है । सुमतिवाला दुःख का भोगी न बनकर दुःखहारी में अपनी गति-प्रीति बढ़ाता है । उसका दुःख भी तपस्या और समता का सुख-साधन बन जाता है । सुमतिवाले के पास दुःख भी साधन बन जाता है और सुख भी साधन बन जाता है । सुरुचिवाले को सुख भोग-विलास करा के खोखला बना देता है और दुःख दूसरों पर दोषारोपण व राग-द्वेष करा के और भी कमजोर कर देता है, रागी-द्वेषी-मोही बना देता है । सुख-दुःख तो सभीके जीवन में आते हैं लेकिन सुमतिवाला इनका सदुपयोग करके परमात्मा तक पहुँचता है और सुरुचिवाला इनमें उलझकर खप जाता है ।