Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

पथ्य-अपथ्य विवेक

आहार-द्रव्यों के प्रयोग का व्यापक सिद्धांत है :

तच्च नित्यं प्रयुञ्जीत स्वास्थ्यं येनानुवर्तते ।

अजातानां विकाराणामनुत्पत्तिकरं च यत् ।।

ऐसे आहार-द्रव्यों का नित्य सेवन करना चाहिए, जिनसे स्वास्थ्य का अनुरक्षण (चरळपींशपरपलश) होता रहे अर्थात् स्वास्थ्य उत्तम बना रहे और जो रोग उत्पन्न नहीं हुए हैं उनकी उत्पत्ति भी न हो सके ।’

(चरक संहिता, सूत्रस्थानम् : ५.१३)

जो पदार्थ शरीर के रस, रक्त आदि सप्तधातुओं के समान गुणधर्मवाले हैं, उनके सेवन से स्वास्थ्य की रक्षा होती है । अष्टांगसंग्रह’कार वाग्भटाचार्यजी ने ऐसे नित्य सेवनीय पदार्थों का वर्णन किया है ।

साठी के चावल, मूँग, गेहूँ, जौ, गाय का घी व दूध, शहद, अंगूर, अनार, परवल, जीवंती (डोडी), आँवला, हरड़, मिश्री, सेंधा नमक व आकाश का जल स्वभावतः धातुवर्धक होने के कारण सदा पथ्यकर हैं ।

जो पदार्थ धातुओं के विरुद्ध गुणधर्मवाले व त्रिदोषों को प्रकुपित करनेवाले हैं, उनके सेवन से रोगों की उत्पत्ति होती है । इन पदार्थों में कुछ परस्पर गुणविरुद्ध, कुछ संयोगविरुद्ध, कुछ संस्कारविरुद्ध और कुछ देश, काल, मात्रा, स्वभाव आदि से विरुद्ध होते हैं ।

जैसे - दूध के साथ मूँग, उड़द, चना आदि दालें; सभी प्रकार के खट्टे व मीठे फल; गाजर, शकरकंद, आलू, मूली जैसे कंदमूल; तेल, गुड़, दही, नारियल, लहसुन, कमलनाल, सभी नमकयुक्त व अम्लीय पदार्थ संयोगविरुद्ध हैं । दही के साथ उड़द, गुड़, काली मिर्च, केला व शहद; शहद के साथ गुड़; घी के साथ तेल विरुद्ध है ।

शहद, घी, तेल व पानी - इन चार द्रव्यों में से किसी भी दो अथवा तीन द्रव्यों का समभाग मिश्रण मात्राविरुद्ध है । उष्णवीर्य व शीतवीर्य (गर्म व ठंडी तासीरवाले) पदार्थों का एक साथ सेवन वीर्यविरुद्ध है । दही व शहद को गर्म करना संस्कारविरुद्ध है ।

दूध को विकृत कर बनाये गये पनीर आदि व खमीरीकृत पदार्थ स्वभाव से ही विरुद्ध हैं ।

हेमंत व शिशिर - इन शीत ऋतुओं में अल्प भोजन, शीत, पचने में हलके, रुक्ष, वातवर्धक पदार्थों का सेवन तथा वसंत, ग्रीष्म, शरद - इन उष्ण ऋतुओं में दही का सेवन कालविरुद्ध है । मरुभूमि में रुक्ष, उष्ण, तीक्ष्ण पदार्थों का सेवन तथा समुद्रतटीय प्रदेशों में चिकनाईयुक्त, शीत पदार्थों का सेवन व क्षारयुक्त भूमि के जल का सेवन देशविरुद्ध है ।

अधिक परिश्रम करनेवाले व्यक्तियों के लिए अल्प, रुक्ष, वातवर्धक पदार्थों का सेवन व बैठे-बैठे काम करनेवाले व्यक्तियों के लिए स्निग्ध, मधुर, कफवर्धक पदार्थों का सेवन अवस्थाविरुद्ध है ।

अधकच्चा, अधिक पका हुआ, जला हुआ, बार-बार गर्म किया गया, उच्च तापमान पर पकाया गया (जैसे - फास्टफूड), अति शीत तापमान में रखा गया (जैसे - फ्रिज में रखे पदार्थ) भोजन पाकविरुद्ध है ।

वेग लगने पर मल-मूत्र का त्याग किये बिना, भूख के बिना भोजन करना क्रमविरुद्ध है ।

इस प्रकार के विरोधी आहार के सेवन से बल, बुद्धि, वीर्य व आयु का नाश होता है । नपुंसकता, अंधत्व, पागलपन, अर्श, भगंदर, कुष्ठरोग, पेट के विकार, सूजन, अम्लपित्त, सफेद दाग तथा ज्ञानेन्द्रियों में विकृति व अष्टौमहागद अर्थात् आठ प्रकार की असाध्य व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं । विरुद्ध अन्न का सेवन मृत्यु का भी कारण हो सकता है ।

अतः पथ्य-अपथ्य का विवेक करके नित्य पथ्यकर पदार्थों का ही सेवन करें । अज्ञानवश विरुद्ध आहार के सेवन से उपरोक्त व्याधियों में से कोई भी उत्पन्न हो गयी हो तो वमन-विरेचनादि पंचकर्म से शरीर की शुद्धि एवं अन्य शास्त्रोक्त उपचार करने चाहिए । ऑपरेशन व अंग्रेजी दवाएँ सब रोगों को जड़-मूल से नहीं निकालते । ईमानदार एवं जानकार वैद्य की देखरेख में पथ्य-पालन करते हुए किया गया पंचकर्म विशेष लाभ देता है । इससे रोग तो मिटते ही हैं, १०-१५ साल आयुष्य भी बढ़ सकता है ।