Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

स्वरयोग विज्ञान महत्ता व उपयोग

यदि हम श्वासोच्छ्वास का अवलोकन करें तो पायेंगे कि सामान्यतया एक समयावधि में एक ही नथुने से वायु (अधिक मात्रा में) आती-जाती है । फिर उसके बाद दूसरा नथुना खुलता है तथा श्वास का प्रवाह उससे चलता है ।

एक स्वर बायें से तो दूसरा दायें से प्रवाहित होता है तथा तीसरा एक साथ दोनों नथुनों से प्रवाहित होता है, जिसे ध्यान-भजन व ईश्वरीय सुख दिलाने में परम हितकारी ‘शून्य स्वर’ कहते हैं । इस समूची क्रिया में एक क्रम और नियमबद्धता पायी जाती है । ये तीनों स्वर हमारे शरीर, मन और मस्तिष्क पर भिन्न-भिन्न प्रभाव डालते तथा ऊर्जा-केन्द्रों में हलचल पैदा करते हैं । श्वासोच्छ्वास की यह लय हमारे शरीर के समस्त शारीरिक तथा मानसिक क्रियाकलापों को नियमित, नियंत्रित एवं चुस्त-दुरुस्त रखती है तथा सम्पूर्ण नाड़ीमंडल को प्रभावित करती है ।

यदि स्वर नियमित न हो तो यह इस बात की चेतावनी है कि शरीर में कहीं-न-कहीं कोई गड़बड़ी आ गयी है । स्वरयोग एक अत्यंत प्राचीन विज्ञान है, जो बताता है कि श्वास द्वारा किस प्रकार प्राण को नियंत्रित तथा संचालित किया जा सकता है ।

जिस समय श्वासोच्छ्वास का प्रवाह बायीं नासिका (इड़ा नाड़ी) में होता है उस समय चित्त क्रियाशील होता है तथा प्राण अपेक्षाकृत कमजोर अवस्था में होते हैं । जिस समय दायें नथुने (पिंगला नाड़ी) से श्वासोच्छ्वास प्रवाहित होता है उस समय प्राण शक्तिशाली होते हैं तथा मनस् शक्ति (चित्त की क्रियाशीलता) मंद होती है । परंतु जब श्वास का प्रवाह एक साथ दोनों नथुनों में समान (सुषुम्ना नाड़ी सक्रिय) हो तो वह इस बात का संकेत है कि व्यक्ति का आत्मपक्ष (आत्मशक्ति, आत्मिक जागृति की अवस्था) प्रबल है ।

सुषुम्ना का अपना आध्यात्मिक महत्त्व है । जब सुषुम्ना प्रवाहित होती है तो शारीरिक और मानसिक ऊर्जा लययुक्त तथा समान होती है । विचारों तथा मन की हलचल न्यूनतम होती है । मन शांत और एकाग्र रहता है । सुषुम्ना सफल ध्यान के लिए बड़ा सहायक स्वर माना जाता है, स्वरयोग का सार शून्य स्वर (सुषुम्ना नाड़ी) को दीर्घकाल तक सक्रिय रखना तथा इड़ा-पिंगला के क्रियाकलापों को कम करना है । 

स्वरों और मुख्य नाड़ियों का परस्पर सीधा संबंध होता है । नाड़ियों के सम्यक् संतुलन से ही शरीर के ऊर्जा-चक्र जागृत रहते हैं तथा अंतःस्रावी ग्रंथियाँ क्रियाशील होती हैं ।

स्वरों के हमारे शरीर व मन पर पड़नेवाले प्रभावों को समझकर यदि कार्य किया जाय तो अपेक्षित सफलता आसानी से प्राप्त हो सकती है । जब चन्द्र स्वर चलता है तो शरीर में गर्मी का प्रभाव घटने लगता है । अतः गर्मी-संबंधित रोगों एवं बुखार के समय चन्द्र स्वर को चलाया जाय तो वे शीघ्र ठीक हो सकते हैं । इसी प्रकार भोग के समय कामाग्नि और क्रोध व उत्तेजना के समय प्रायः मानसिक गर्मी अधिक होती है । अतः ऐसे समय चन्द्र स्वर को सक्रिय रखा जाय तो उन पर सहजता से नियंत्रण पाया जा सकता है । जब दोनों स्वर बराबर अवधि में, शरीर की आवश्यकतानुरूप चलते हैं, तभी व्यक्ति स्वस्थ रहता है ।

दिन में रात्रि की अपेक्षा गर्मी अधिक रहती है । अतः जितना ज्यादा चन्द्र स्वर सक्रिय होता है उतना स्वास्थ्य अच्छा होता है । इसी प्रकार रात्रि में ठंडक ज्यादा रहती है । अतः उसको संतुलित रखने के लिए सूर्य स्वर चलाकर प्रगाढ़ निद्रा का लाभ उठा सकते हैं ।

जिनका दिन में चन्द्र व रात में सूर्य स्वर स्वाभाविक रूप से अधिक चलता है वे प्रायः दीर्घायु होते हैं । स्वामी शिवानंदजी के अनुसार ‘जिसकी दिन में लगातार इड़ा नाड़ी (चन्द्र स्वर) व रात्रि में लगातार पिंगला नाड़ी (सूर्य स्वर) चलती है वह महान योगी बन जाता है ।’

ब्रह्मलीन श्री देवराहा बाबा बहुत दीर्घायु रहे । वे कहते थे :

रात चलावे सूर्य स्वर, दिन चलावे चन्द्र ।

सुरजोगी1 भरपूर है, लहै अमर सब सोय ।।

अन्यत्र भी आता है :

दिन को जो चंदा चलै, रात चलावे सूर ।

तो यह निश्चय जानिये, प्राण गमन है दूर ।।

चन्द्र और सूर्य स्वरों का असंतुलन थकावट, चिंता तथा अन्य रोगों को जन्म देता है । लम्बे समय तक रात्रि में लगातार चन्द्र और दिन में सूर्य स्वर चलना खराब स्वास्थ्य का सूचक होता है । संक्रामक और असाध्य रोगों में यह असंतुलन काफी बढ़ जाता है । अतः स्वर चलने की अवधि को समान कर (जो स्वर कम चलता है उसे अधिक चला के) इनसे मुक्ति पायी जा सकती है ।