पादांगुष्ठासन
इसमें शरीर का भार केवल पाँव के अँगूठे पर आने से इसे ‘पादांगुष्ठासन’ कहते हैं । वीर्य की रक्षा व ऊर्ध्वगमन हेतु महत्त्वपूर्ण होने से सभीको विशेषतः बच्चों व युवाओं को यह आसन अवश्य करना चाहिए ।
लाभ : (1) अखंड ब्रह्मचर्य की सिद्धि, वज्रनाड़ी (वीर्यनाड़ी) व मन पर नियंत्रण तथा वीर्यशक्ति को ओज में रूपांतरित करने में उत्तम है ।
(2) मस्तिष्क स्वस्थ रहता है और बुद्धि की स्थिरता व प्रखरता शीघ्र प्राप्त होती है ।
(3) रोगी-निरोगी सभीके लिए लाभप्रद है ।
रोगों में लाभ : स्वप्नदोष, मधुमेह, नपुंसकता व समस्त वीर्यदोषों में विशेष लाभदायी ।
विधि :
(1) पंजों के बल बैठें । बायें पैर की एड़ी सिवनी (गुदा व जननेन्द्रिय के बीच का स्थान) पर लगायें ।
(2) दोनों हाथों की उँगलियाँ जमीन पर रखकर दायाँ पैर बायीं जाँघ पर रखें ।
(3) सारा भार बायें पंजे पर (विशेषतः अँगूठे पर) संतुलित करके हाथ कमर पर या नमस्कार की मुद्रा में रखें । प्रारम्भ में कुछ दिन आधार लेकर कर सकते हैं । कमर सीधी व शरीर स्थिर रहे । श्वास सामान्य, दृष्टि आगे किसी बिंदु पर एकाग्र व ध्यान संतुलन रखने में हो ।
(4) यही क्रिया पैर बदलकर भी करें ।
समय : प्रारम्भ में दोनों पैरों से आधा-एक मिनट करें । दोनों पैरों को एक समान समय देकर यथासम्भव बढ़ा सकते हैं ।
सावधानी : अंतिम स्थिति में आने की शीघ्रता नहीं करें, क्रमशः अभ्यास बढ़ायें । इसे दिनभर में दो-तीन बार कभी भी कर सकते हैं किंतु भोजन के तुरंत बाद न करें ।
बुद्धिशक्तिवर्धक प्रयोग
लाभ : इसके नियमित अभ्यास से ज्ञानतंतु पुष्ट होते हैं । चोटी के स्थान के नीचे गाय के खुर के आकारवाला बुद्धिमंडल है, जिस पर इस प्रयोग का विशेष प्रभाव पड़ता है और बुद्धि व धारणाशक्ति का विकास होता है ।
विधि : सीधे खड़े हो जायें । हाथों की मुट्ठियाँ बंद करके हाथों को शरीर से सटाकर रखें । सिर पीछे की तरफ ले जायें । दृष्टि आसमान की ओर हो । इस स्थिति में गहरा श्वास 25 बार लें और छोड़ें । मूल स्थिति में आ जायें ।
विशेष : श्वास लेते समय मन में ‘ॐ’ का जप करें व छोड़ते समय उसकी गिनती करें ।
ध्यान दें : यह प्रयोग सुबह खाली पेट करें । शुरू-शुरू में 15 बार श्वास लें और छोड़ें, फिर धीरे-धीरे बढ़ाते हुए 25 तक पहुँचें ।