देवर्षि नारदजी भगवान का सुमिरन करते हुए कहते हैं : ‘‘युधिष्ठिर ! गृहस्थ-जीवन में मनुष्य को उस परमेश्वर का, निर्दुःख नारायण का महाप्रसाद, महा-अमृत पाना हो तो सनातन धर्म के कुछ नियमों को आचरण में लाये । ऐसा करने पर साधारण व्यक्ति, गृहस्थ में जीनेवाला व्यक्ति भी उस परम सुख को, उस सत्य-स्वभाव ईश्वर को पा सकता है ।
एक तो अपने वचन में झूठ-कपट का त्याग कर दे, सत्य वचन बोले । दूसरा, अपने स्वभाव में दया का प्रवेश कराये । दया सभी धर्मों का मूल है राजन् !”
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान ।
तुलसी दया न छाड़िये, जब लग घट में प्राण ।।
चलते-फिरते देखो, जीव-जंतु, कीड़े-मकोड़े अथवा कोई भी प्राणी आपसे कष्टवान न हो । आपकी वाणी किसीको चुभनेवाली न हो । आपका व्यवहार... आप चलते हो तो धरती पछाड़ते हुए न चलिये, कोमलता से चलिये । बोलिये तो तीखी वाणी न बोलिये । कोई चीज लीजिये, दीजिये, रखिये तो सहजता से ।
कई माइयों की, रसोइयों की आदत होती है कि बर्तन पटकते रहते हैं । क्यों उस ब्रह्म का अपमान करते हो ! बर्तनों में और चीज-वस्तुओं में भी ब्रह्म-परमात्मा की सत्ता है, फेंका-फेंकी, पटका-पटकी न करो । क्रोध आदि पर नियंत्रण पाओ ।
‘‘तीसरा है तप अर्थात् अपना कर्तव्य और धर्म का पालन कठिनता से भी करके जीना ।”
वाणी का तप होता है, शरीर का तप होता है, मन का तप होता है - अपने जीवन में
तप हो ।
‘‘चौथी बात है कायिक, वाचिक व मानसिक शुद्धि (शौच) ।”
शरीर से स्नान आदि करके शुद्ध रहना, वाणी से जप करके शुद्ध होना, मन से भगवान की स्मृति करते हुए शुद्ध रहना ।
‘‘पाँचवाँ है अपने जीवन में सहिष्णुता का गुण विकसित करना ।”
इससे परमात्मा का प्रकाश होने में सुविधा होगी, परमात्मा का समत्व-ज्ञान प्रकट होने में सुविधा होगी । सहिष्णुता लाओ, जरा-जरा-सी बात में घबरा न जाओ, जरा-जरा-सी बात में विह्वल न हो जाओ, जरा-जरा-सी बात में आपे से बाहर न हो जाओ । धीरज सबका मित्र है ।
बहुत गयी थोड़ी रही, व्याकुल मन मत हो ।
धीरज सबका मित्र है, करी कमाई मत खो ।।
सासु ने दो वचन कह दिये... बहूरानी बिटिया ! थोड़ा धीरज रख, जेठानी ने कह दिया तो देवरानी थोड़ा धीरज रख, ननद ने कह दिया तो भाभी थोड़ा धीरज रख, पड़ोसी ने कह दिया तो लाली थोड़ा धीरज रख । उसने कुछ बोल दिया और तुमने सवाया बोल दिया, फिर उसने और टेढ़ा बोल दिया... अशांति होगी, नुकसान होगा मानवता का । धीरज सबका मित्र है, करी कमाई मत खो । लेकिन ‘क्या करूँ ? वह रोज-रोज बोलती है ।’ तो रोज जब-जब बोले, जीभ तालू में लगा दे, वह बोलते-बोलते थक जायेगी और देर-सवेर तुम्हारे लिए मधुमय हो जायेगी, बिल्कुल पक्की बात है । कोई अकारण डाँटती है तो तू जीभ तालू में लगाकर शांत रह । इससे तेरी शक्ति तो बढ़ती जायेगी और उसकी शक्ति क्षीण हो जायेगी । तू उसकी शक्ति क्षीण करने के बहाने नहीं, उसके मंगल के बहाने कर तो उसका मन परिवर्तित हो जायेगा ।
व्यक्ति वास्तव में बुरा नहीं होता । झगड़ाखोरी तो उसका आगंतुक विकार है, काम भी आगंतुक विकार है, क्रोध भी आगंतुक विकार है, दगा और बेईमानी भी आगंतुक विकार हैं, मूलरूप में तो वह व्यक्ति अमृतमय आत्मा है ।