रघु राजा का दरबार लगा हुआ था । एक प्रश्न पर चर्चा हो रही थी कि ‘राज्य कोष का उपयोग किन उद्देश्यों के लिए किया जाय ?’
एक पक्ष ने कहा : “सैन्य शक्ति ही समृद्ध राष्ट्र का आधार है, अतः सैन्य शक्ति बढ़ायी जाय । इससे देश की सुरक्षा भी होगी और हम अपने देश की सीमाओं का विस्तार करने में भी समर्थ होंगे । युद्ध होने पर पराजित देशों का धन भी अपने कोष में जमा होगा, इससे देश की आर्थिक स्थिति भी मजबूत होगी ।”
दूसरा पक्ष था : “धन का व्यय प्रजा को सुसंस्कार प्रदान करने में होना चाहिए । संयमी, विवेकी, साहसी, बुद्धिमान, धर्मनिष्ठ तथा आत्मप्रकाश की भावनाओँ से भरा प्रत्येक नागरिक एक दुर्ग होगा, जिसे कोई भी जीत नहीं सकेगा । किसी भी देश की शक्ति धन में नहीं वरन सदाचारी व्यक्तियों में निहित है । शील की शक्ति के आधार पर कोई भी छोटा देश चक्रवर्ती बन जाता है ।”
दोनों पक्षों के तर्क सुनने के पश्चात राजा रघु ने निर्णय किया कि राज्य का कोष प्रमुख रूप से प्रजा की शिक्षा तथा संस्कार पर खर्च होगा । वैसा ही किया गया जिसके परिणामस्वरूप धीरे-धीरे प्रजाजन प्रत्येक दृष्टि से समुन्नत हो गये । पड़ोसी राज्यों को उनके चरित्र-बल के समाचार मिलने लगे तो उन्होंने इस राज्य पर कभी भी आक्रमण करने का स्वप्न तक नहीं देखा । अन्य देशों के समर्थ लोग भी यहाँ आकर बसने लगे । भूमि भी सोना उगलने लगी । हर क्षेत्र में देश समृद्ध होने लगा । इसीके परिणामस्वरूप मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्रजी का अवतरण इस कुल में हुआ ।
[अंक – 189, सितम्बर 2008]