Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

यौवन का मूल : संयम-सदाचार - 1

चाय-कॉफी की जगह ऋतु के अनुकूल फलों का सेवन अच्छा स्वास्थ्य-लाभ तो देता ही है, शरीर को पुष्ट भी करता है । सात्त्विक एवं अल्प आहार भी ब्रह्मचर्य की रक्षा में सहायक है । कम खाने का मतलब यह नहीं कि तुम 200 ग्राम खाते हो तो 150 ग्राम खाओ । नहीं, यदि तुम एक किलो पचा सकते हो और विकार उत्पन्न नहीं होता तो 990 ग्राम खाओ । किंतु तुम पचा सकते हो 200 ग्राम तो 210 ग्राम मत खाओ । इससे ब्रह्मचर्य की रक्षा में सहायता मिलती है और उससे व्यक्ति में सामर्थ्य एवं सब सद्गुण सहज विकसित होते हैं ।

जहाँ चाह वहाँ राह ।

जहाँ मन की गहरी चाह होती है, आदमी वहीं पहुँच जाता है । अच्छे कर्म, अच्छा संग करने से हमारे अंदर अच्छे विचार पैदा होते हैं, हमारे जीवन की अच्छी यात्रा होती है और बुरे कर्म, बुरा संग करने से बुरे विचार उत्पन्न होते हैं एवं जीवन अधोगति की ओर चला जाता है ।

हर महान कार्य कठिन है और हलका कार्य सरल । उत्थान कठिन है और पतन सरल । पहाड़ी पर चढ़ने में परिश्रम होता है पर उतरने में परिश्रम नहीं होता । पतन के समय जरा भी परिश्रम नहीं करना पड़ता है लेकिन परिणाम दुःखद होता है... सर्वनाश ! उत्थान के समय आराम नहीं होता, परिश्रम लगता है किंतु परिणाम सुखद होता है । कोई कहे कि ‘इस जमाने में बचना मुश्किल है... कठिन है...’ पर ‘कठिन है...’ ऐसा समझकर अपनी शक्ति को नष्ट करना यह कहाँ की बुद्धिमानी है ?

 

गयी सो गयी, राख रही को...

मन का स्वभाव है नीचे के केन्द्रों में जाना । आदमी विकारों में गिर जाता है फिर भी यदि उसमें प्रबल पुरुषार्थ हो तो वह ऊपर उठ सकता है । इस जमाने में भी ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने संयम किया है और संयम से बलवान हुए हैं ।

पुरुषार्थ से सब सम्भव है लेकिन ‘कठिन है... कठिन है...’ ऐसा करके कठिनता को मानसिक सहमति दे देते हैं तो हमारे जीवन में कोई प्रगति नहीं होती । ध्रुव ने यदि सोचा होता कि ‘प्रभुप्राप्ति कठिन है...’ तो ध्रुव को प्रभु नहीं मिलते । प्रह्लाद ने यदि ऐसा सोचा होता कि ‘भगवद्-दर्शन कठिन है...’ तो उसके लिए भगवत्प्राप्ति कठिन हो जाती ।

हम किसी कार्य को जितना ‘कठिन है...कठिन है...’ ऐसा समझते हैं, वह कार्य कठिन-कठिन ही लगने लगता है लेकिन हम कठिन को कठिन न समझकर पुरुषार्थ करते हैं तो सफल भी हो सकते हैं । प्रयत्नशील आदमी हजार बार असफल होने पर भी अपना प्रयत्न चालू रखता है तो भगवान उसको अवश्य मदद करते हैं ।

हिम्मते मर्दा तो मददे खुदा ।

नष्ट-भ्रष्ट-निस्तेज जीवन के कगार पर पहुँचे हुए कई युवक-युवतियों को किन्हीं पुण्यात्मा साधकों के द्वारा आश्रम की ‘दिव्य प्रेरणा-प्रकाश’, ‘पुरुषार्थ परम देव’ पुस्तकें पढ़ने को मिलीं तो उनका जीवन बदल गया । युवाधन को बचाने के लिए, देश के भावी नागरिकों को तेजस्वी बनाने के लिए आश्रम से जुड़े हुए सभी पुण्यात्मा अपने-अपने इलाकों में व्यक्तिगत रूप से युवक-युवतियों को ‘दिव्य प्रेरणा-प्रकाश’ पुस्तक पाँच बार पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें । यह छोटा-सा दिखनेवाला काम अपने-आपमें एक बहुत बड़ा पुण्यकार्य है । एक युवक या युवती की जिंदगी चमकी तो उसका पूरा परिवार और पड़ोस भी लाभान्वित होगा ।