Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

प्रातः जागरण को साधनामय बनाना सिखाया - 3

आत्मशक्ति से शरीर, मन, बुद्धि को पुष्ट करो

फिर लेटे-लेटे शरीर को खींचो । 2 मिनट खूब खींच-खींच के 2 मिनट ढीला छोड़ो ताकि आत्मा की शक्ति तुम्हारे शरीर, मन और बुद्धि में ज्यादा-से-ज्यादा आये । बूढ़े शरीर खींचेंगे तो बुढ़ापे की कमजोरी ज्यादा नहीं रहेगी और बच्चे खींचेंगे तो जीवन उत्साह एवं स्फूर्ति से भर जायेगा । तत्पश्चात् बिस्तर में शांत बैठकर आत्मचिंतन करो : ‘मैं पाँच भूतों से बना हुआ शरीर नहीं हूँ । जो सत् है, चित् है, आनंदस्वरूप है और मेरे हृदय में स्फुरित हो रहा है, जो सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और संहार का कारण है और मेरे शरीर की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण है, उस सच्चिदानंद का मैं हूँ और वे मेरे हैं । ॐ शांति, ॐ आनंद...’ 2-5 मिनट इस प्रकार तुम नींद में से उठ के शांत रहोगे तो मैं कहूँगा 2 दिन की तपस्या से वे 2 मिनट ज्यादा फायदा करेंगे, पक्की बात है !

अथवा आप यदि अपने जीवन में उन्नति चाहते हो तो सुबह नींद से उठकर शांत हो के बैठ जाओ । ‘भगवान मैं तुम्हारा हूँ, तुम मेरे हो’- ऐसा करके 5-7 मिनट बिस्तर पर ही बैठो । कुछ नहीं करना, सिर्फ इस बात को पकड़ के बैठ जाओ कि ‘मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं । ॐ शांति, ॐ आनंद...’

बुद्धि को मजबूत व प्रखर करने की युक्ति

बुद्धि को मजबूत करने के लिए सुबह उठो तो विचारो कि ‘परमात्मा में से ‘मैं’ आया और मेरी मति व मन भी आया, अब इन्द्रियों के साथ हम भटकें नहीं इसलिए

प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्त्वं

सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम् ।

यत्स्वप्नजागरसुषुप्तिमवैति नित्यं

तद्ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसंघः ।।

‘मैं प्रातःकाल हृदय में स्फुरित होते हुए आत्मतत्त्व का स्मरण करता हूँ, जो सत्, चित् और आनंदस्वरूप है, परमहंसों का प्राप्य स्थान है और जाग्रत आदि तीनों अवस्थाओं से विलक्षण ‘तुरीय’ है । जो स्वप्न, सुषुप्ति और जाग्रत अवस्था को नित्य जानता है, वह स्फुरणरहित ब्रह्म ही मैं हूँ; पंचभूतों का संघात (शरीर) मैं नहीं हूँ ।’

प्रातः हम उसी परमेश्वर का स्मरण करते हैं जो वासुदेव है । इन्द्रियाँ मन में गयीं, मन बुद्धि में गया, बुद्धि जीवत्व में गयी और जीवत्व मेरे परमात्मा में डूब के आया है । जैसे कोई चीज फ्रिज में रखते हैं तो उसमें शीतलता आती है, ऐसे ही परमात्मा के निकट गये तो मेरे तन, मन, इन्द्रियों को शांति मिली और उसीके स्फुरण से मन स्फुरित हुआ तथा इन्द्रियाँ बहिर्मुख हुई हैं । मैं उस परमात्मा का स्मरण करता हूँ । मेरी बुद्धि में अपना सत्त्व दें परमेश्वर !

असतो मा सद्गमय । मुझे असत्य आसक्तियों, असत्य भोगों से बचाओ । तमसो मा ज्योतिर्गमय । यह करूँगा तो सुखी, यह भोगूँगा तो सुखी... यह अंधकार है । शरीर को ‘मैं’ मानना, संसार को ‘मेरा’ मानना - इस अंधकार-अज्ञान से बचाकर मुझे आत्मप्रकाश दो । मृत्योर्मा अमृतं गमय । मुझे बार-बार जन्मना और मरना न पड़े ऐसे अपने अमरस्वरूप की प्रीति और ज्ञान दे दो । ओ मेरे सद्गुरु ! हे गोविंद ! हे माधव !...’ भगवान का कोई भी नाम लो । ऐसे भगवान से सुबह थोड़ी देर प्रार्थना करके शांत हो जाओ । इससे बुद्धि में सत्त्व बढ़ेगा और बुद्धि मजबूत रहेगी, मन की गड़बड़ से मन को बचायेगी और मन इन्द्रियों को नियंत्रित रखेगा ।’’

सुबह उठकर पाँच आहुतियाँ दें

5 क्लेश व्यक्ति को जन्म-मरण के चक्कर में भटकाते हैं, इनको दूर करने का सरल उपाय तत्त्ववेत्ता पूज्य बापूजी बताते हैं : ‘‘आपकी नाभि जठराग्नि का केन्द्र है । अग्नि नीचे फैली रहती है और ऊपर लौ होती है । तो जठराग्नि की जगह पर त्रिकोण की भावना करो और चिंतन करो, ‘अविद्यमान वस्तुओं को, अविद्यमान परिस्थितियों को सच्चा मनवाकर जो भटकान कराती है, उस अविद्या को मैं जठराग्नि में स्वाहा करता हूँ : अविद्यां जुहोमि स्वाहा । अस्मिता है देह को ‘मैं’ मानना । तो अस्मितां जुहोमि स्वाहा । ‘मैं अस्मिता को अर्पित करता हूँ ।’ रागं जुहोमि स्वाहा । ‘मैं राग को अर्पित करता हूँ ।’ द्वेषं जुहोमि स्वाहा । ‘द्वेष को भी मैं अर्पित करता हूँ ।’ फिर आखिरी, पाँचवाँ क्लेश आता है अभिनिवेश - मृत्यु का भय । मृत्यु का भय रखने से कोई मृत्यु से बचा हो यह मैंने आज तक नहीं देखा-सुना, अपितु ऐसा व्यक्ति जल्दी मरता है । अतः अभिनिवेशं जुहोमि स्वाहा । ‘मृत्यु के भय को मैं स्वाहा करता हूँ ।’