शरद पूर्णिमा : करोड़ों वृत्तियों को समेटकर भक्तिरस में सराबोर होने की रात्रि
हिन्दू समाज में शरद पूर्णिमा की रात्रि का विशेष महत्त्व है । माना जाता है कि इस रात्रि को चंद्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ पृथ्वी पर शांतिरुपी अमृतवर्षा करता है ।
इससे चित्त की शांति के साथ साथ पित्त का प्रकोप भी शांत होता है । इसलिए प्रत्येक मनुष्य को इस महत्वपूर्ण रात्रि की चाँदनी का सेवन अवश्य करना चाहिए ।
महर्षि वेदव्यासजी ने श्री मद्भागवत के दशम स्कंध में शरद पूर्णिमा की रात्रि को अपनी पूर्ण कला के साथ धरती पर अवतरित परब्रह्म (श्रीकृष्ण) के महारासोत्सव की रात्रि कहा है ।
चंद्रमा की शांति रूपी अमृतवर्षा की तरह भगवान् श्रीकृष्ण ने भी शरद पूर्णिमा की रात्रि को अपनी रासलीला में अपना भक्तिरस छलकाया था ।
कहते हैं कि महारास की इस रात्रि में सोलह हजार गोपियों ने श्रीकृष्णरस का अमृतपान किया था ।
सोलह हजार ही क्या ..! उनकी संख्या तो सोलह करोड़ भी हो सकती है क्यों कि प्रत्येक क्षण में बदलने वाली मनोवृत्तियाँ ही तो गोपियाँ हैं और दिनभर में हमारे चित्त में जितनी वृत्तियाँ उठती हैं उनकी तो कोई गिनती ही नहीं की जा सकती ।
उन मनोवृत्तियों को भगवान श्री कृष्ण की मधुर बंसी की मधुर धुन बरबस अपनी ओर खींचती है और वे परवश होकर उनकी ओर खिंची चली जाती हैं, परन्तु श्री कृष्ण उनके बाह्य रूप रंग तथा आकार पर मोहित नहीं होते क्यों कि वृत्तियों को शांत करने वाला महापुरुष वृत्तियों में कभी उलझता नहीं है ।
शरद पूर्णिमा का चन्द्र पूर्णरूप से खिला हुआ था । चन्द्र का अर्थ है मनरूपी देवता । ईश्वरीय धुन में लीन होने के कारण उस दिन चन्द्र पूर्ण रूप से खिला था ।
शरद पूर्णिमा की उस शीतल एवं सुहावनी रात्रि में दो-दो गोपियों के बीच एक-एक कृष्ण का सबने दर्शन किया था, यह रहस्य कितना गूढ़ है ।
हमारे दो हाथ हैं परन्तु दोनों में कार्य करने की एक ही भगवत्शक्ति व्याप रही है । हमारी आँखें दो हैं परन्तु दृष्टि एक ही है ।
इसी प्रकार हमारे कान और नासिका छिद्र भी दो-दो हैं परन्तु श्रवणशक्ति तथा प्राणसंचार शक्ति एक ही है । यही द्वैत के बीच अद्वैत की भावना है ।
इसी आध्यात्मिक रहस्य की उद्बोधिनी शरद पूर्णिमा है । इस रात्रि में श्रद्धालु, संयमी एवं समझदार लोगों को युगों पूर्व छलकाया गया कृष्णरस आज भी प्राप्त होता है ।
- लोक कल्याण सेतु, सितम्बर-1998, अंक-15 से